वो थी एक डायरी
गुलाबी जिल्द वाली
अन्दर के चिकने पन्ने
खुशनुमा छुअन लिए
मुकम्मल थी एकदम
कुछ खूबसूरत सा
लिखने के लिए I
सिल्क की साड़ियों की
तहों के बीच,
अल्मारी में सहेजा था उसे
उन मेहंदी लगे हाथों ने,
सेंट की खुशबू
और ज़री की चुभन
को करती रही थी वो जज़्ब,
हर दिन रहता था
बाहर आने का इंतज़ार
अपने चिकने पन्नों पर
प्यारा सा कुछ
लिखे जाने का इंतज़ार I
अल्मारी के बाहर
मौसम बदलते रहे
साड़ियो की तहों में दबी
डरी सहमी
वो सुनती रही,
चिल्लाना रोना बिलखना
और अल्मारी के अन्दर
साड़ियों की रंगत
भी फीकी पड़ती रही,
और वो गुलाबी जिल्द वाली डायरी
जिसके चिकने पन्नों
में थी खुशनुमा छुअन
मेहंदी लगे हाथों की
राह तकती रही I
कितने मौसम बदले यूं ही
आज उसे याद नहीं,
साड़ियों की क़ैद
जिल्द की गुलाबी रंगत
पन्नों की खुशनुमा छुअन
सब बिसरी बातें हैं अब,
खुरदुरे हाथ लिखते हैं उसमे
खर्चे का जमा घटा
न कोई ख्वाइश न शिकायत
न कोई इंतज़ार बचा
अब वो है एक
बिना जिल्द वाली
फटेहाल पुरानी डायरी
मौलिक व् अप्रकाशित
Comment
आदरणीया प्रतिभा जी, गुलाबी जिल्द वाली डायरी के बिना जिल्द वाली डायरी बनने की दास्तां को मुकम्मल लफ्ज़ मिले है. एक नारी के समर्पण की मार्मिक कथा को बिम्ब के माध्यम से जिस सधे ढंग से प्रस्तुत किया है वो अद्भुत है. इस शानदार प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
गुलाबी डायरी पूरा जीवन दर्शन बयां करती है. आपको बधाई .
आ० हर्ष जी दाद के लिए तहे दिल से शुक्रिया साथ में ढेरों बधाई भी ,माह का सक्रीय सदस्य चुने जाने के लिए
आ० कांता जी, पूरा ही पोस्ट मोरटम कर दिया आपने बेचारी छोटी सी डायरी का. क्या ,टूटने के डर से ख़्वाब बुने ही न जाएँ ? , आपकी अपनेपन से पगी टिपण्णी के लिए ह्रदय से आभार
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