तन्हाई चीखती है कहीं
पगलाई-सी हवा धमक पड़ती है ।
अंधेरे में भी दरवाजे तक पहुँच कर
बेतहाशा कुंडियाँ खटखटाती है।
अकेला सोया पड़ा इंसान अपने ही भीतर हो रहे शोर से
घबड़ा कर उठ बैठता है ।
मोबाइल में चौंक कर देखता है समय
“रात के ढ़ाई ही तो अभी बजे हैं “ बुदबुदाता है।
सन्नाटा उसकी दशा पर मुस्कुराता है।
उधर दुनिया के कहीं कोने में
भीड़ भूख-प्यास से बेकाबू हो कर सड़को पर नहीं निकलती,
सामूहिक आत्महत्याएं कर रही होती हैं ।
मर्सिया गाने का काम
स्वत: सोशल साईटो के तथाकथित बुद्धिजिवियों के पास है।
कवि मरते हुए गाजा के बच्चों के नाम कविता लिख
अपनी संजिदगी दिखाता है ।
वहीं दूसरी ओर जेहादी तकरीर के बाद
एक भीड़ हथियारों से लैस होकर निकल पड़ती हैं
दुनिया को ठिकाने लगाने।
एक गरीब देश में भूकम्प आता है
और खाड़ी देशों में ताजा गुलाबी गोश्त की आमद तेज हो जाती है।
दिल्ली सत्ता के घंमड में चूर अपने विज्ञापनों में इठलाती है।
हाईकोर्ट अधिकारियों को याद दिलाती हैं
उनके बच्चे को कहाँ पढ़ना चाहिए ।
नेता जी कहते हैं
एक स्त्री से एक ही व्यक्ति बलात्कार कर सकता है ।
देश के चौहदियों पर तैनात जवान रिटायमेंट के बाद
एक सेवा एक पेंशन की लड़ाई में कूद पड़ता है।
हम कई कप चाय पीने के बाद निष्कर्ष पर पहुँचते हैं
क्रांति होनी चाहिए !
और फिर टीवी खोल कर बैठ जाते हैं।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
क्या यह अधिकांश लोगों के मन की आवाज नहीं है? समझते तो सब हैं पर ...फिर वही
हम कई कप चाय पीने के बाद निष्कर्ष पर पहुँचते हैं
क्रांति होनी चाहिए !
और फिर टीवी खोल कर बैठ जाते हैं।
आदरणीय मिथिलेश जी ..आपकी प्रोत्साहित करती विस्तृत प्रतिक्रिया और वर्तनी संबधी सुझाव के लिए हृदयतल से आभार प्रकट करती हूँ ..
मैंने अापके कहे गए सुझाव के अनुसार ठीक कर दिया , साभार
आदरणीया कांता जीआपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया और रचना के संवेदना के प्रति आपकी सहमती से बहुत खुशी मिली ब हुत आभारी हूँ..स्नेह बनाए रखे
रचना के मनोभाव को समझने और मान देने के लिए आपका हृ़दय से आभारी हूँ आ. डॉ विजय शंकर सर , सादर
आज के माहौल के कसैले वातावरण पर एक तीक्ष्ण कटाक्ष है। आपने समाज की सही नस पकड़ी है। इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीया महिमा जी। हाँ, आदरणीय मिथिलेश जी की टिप्पणी से मैं सहमत हूँ।
आजकल की व्यथा को समेटते हुए बहुत ही अच्छे से अपने शब्दों में पेश किया आपने आ० सुश्री महिमा जी !! ढेरों बधाईयाँ आपकी इस प्रस्तुति पर !!
आदरणीया महिमा जी, बहुत ही संवेदनशील विषयों को समेटते हुए वर्तमान दुनिया में फैली विद्रूपताओं को बहुत सधे हुए ढंग से शाब्दिक किया है इस प्रस्तुति में. इस शानदार रचना पर हार्दिक बधाई. यह भी अवश्य है कि अक्षरी/ वर्तनी दोष ऐसी सशक्त रचनाओं के प्रभाव को भी कम करती है यथा -भुख, बेकाबु, सामुहिक, भुकम्प, कुद .
सादर
बहुत बडी चोट की है आपने आज के देशकाल परिस्थितियों पर आदरणीया महिमा जी । सच ही कहा है आपने कि .... अकेला सोया पड़ा इंसान अपने ही भीतर हो रहे शोर से घबड़ा कर उठ बैठता है ।........वाह !!! बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिये ।
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