हुई जो ख़बर नाम चलने लगा है ।
ये सारा जहां हमसे जलने लगा है ।।
यहां झूठ से सबको नफरत है फिर भी ।
है किसकी ये शह जो मचलने लगा है ।।
न तुम आग उगलो न मै ज़ह्र घोलूं ।
ये सोचें लहू क्यूँ उबलने लगा है ।।
बुरे वक्त में लोग करते है जुर्रत ।
हुई शाम सूरज भी ढलने लगा है ।।
तुम्हें देखते ही हमारी कबा से ।
उदासी का आलम पिघलने लगा है ।।
अज़ल से वही है ज़फ़ा का बहाना ।
कि मौसम के जैसा बदलने लगा है ।।
ये सूखे शज़र छांव देने लगे फिर ।
कि घर का भी मंज़र बदलने लगा है ।।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
बुरे वक्त में लोग करते है जुर्रत ।
हुई शाम सूरज भी ढलने लगा है ।।
बहुत ख़ूब आ०!ढ़ेरों दाद कबूल करें.
आदरणीय मुकेश जी आपकी उत्साहजनक टिप्पणी से उत्साहित है हम । सादर
आदरणीय आमोद जी प्रयास पसंद आया धन्यवाद आपका
आदरणीय मदन मोहन जी ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति का बहुत बहुत आभार
आदरणीय राहुल जी ग़ज़ल आपको पसंद आई आभार स्वीकार करें ।
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