जाने क्या सोच के उसने ये हिमाक़त की है
हो के दरिया जो समंदर से अदावत की है
खींच लायी हे तेरे दर पे ज़रुरत मुझको
हो के मजबूर उसूलों से बग़ावत की है
हमने ख़ारों पे बिछाया हे बिछोना अपना
हमने तलवारों के साये में इबादत की है
अच्छे हमसाये की तालीम मिली हे हमको
हमने जाँ दे के पडोसी की हिफाज़त की है
आज आमाल ही पस्ती का सबब हैं वरना
हमने हर दौर में दुनिया पे हुकूमत की है
दम मेरा कूच -ए -सरकार जाकर निकले
इस तमन्ना के सिवा कुछ भी न हसरत की है
(मौलिक एवम अप्रकाशित )
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया धर्मेन्द्र जी
आदरणीय गिरिराज जी होसला अफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय हसरत भाई , लाजवाब गज़ल कही है , सभी अश आर बे मिसाल हैं । दिली मुबारक बाद आपको ।
दम मेरा कूच -ए -सरकार जाकर निकले -- इस मिसरे की तक्तीअ फिर से कर लीजियेगा , बेबहर लग रहा है ।
बहुत बहुत शुक्रिया मिथलेश जी ग़ज़ल का वजन ये हे 2122 1122 1122 22
बहर के नाम से वाकिफ नहीं हूँ बराए मेहरबानी आप बता दें ...........ज़ेहन में जो मिसरा आता हे उसका वज़न निकल कर ग़ज़ल कह लेता हूँ अब तक जो कुछ सीखा हे इसी मंच से सीखा हे
धन्यवाद् कांता जी
बहुत बहुत धन्यवाद गोपाल जी
bahut bahut shukriah aap sabhi ka
ghazal ka wajan ye he.............2122 1122 1122 22........behar k naam se waqif nahin hoon
bara e meharbani aap hazrat mujhe bhi bata dein ...zehan me jo misra aata he uska wazan nikal kar ghazal keh leta hoon
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