बादलों की ओट से उधार लूँ ज़रा
चाँद आज तुझको मैं निहार लूँ ज़रा..
कँपकँपा रहे अधर नयन मुँदे मुँदे
साँस की छुअन से ही पुकार लूँ ज़रा..
शब्द शून्य सी फिज़ा हुई है पुरअसर
सिहरनों से रूह को सँवार लूँ ज़रा..
चाँद भी पिघल के कह रहा मचल मचल
चाँदनी में प्यार का निखार लूँ ज़रा..
अब महक उठे बहक उठे प्रणय के पल
इन पलों में ज़िन्दगी गुज़ार लूँ ज़रा..
वक्त रुक! न धड़कनों सा तेज़ तू मचल
ख्वाब एक यकीन में उतार लूँ ज़रा..
झूठ है, तो क्या हुआ? है ज़िन्दगी मगर
मत कहो! कि सत्य फिर विचार लूँ ज़रा.
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया प्राची जी, आपकी ग़ज़ल क्या पटल पर ही व्यतिक्रम बनाता हुआ आ रहा हूँ. ग़ज़ल पर हुआ प्रयास आश्वस्तिकारी है, इसमें संदेह नहीं. आदरणीया राजेश कुमारीजी ने ग़ज़ल के व्याकरण के हवाले से सटीक व्याख्या की है. उनके सुझावों पर ध्यान देना उचित होगा. एक अत्यंत आश्वस्तिकारी प्रयास केलिए हार्दिक शुभकामनाएँ
आदरणीया प्राची जी , बहुत दिनो के बाद आपकी गज़ल पढ़ने मिली , और क्या खूब मिली ! लाजवाब , हर शे र बेमिसाल है । दिली बधाइयाँ स्वीकार करें ॥
झूठ है, तो क्या हुआ? है ज़िन्दगी मगर
मत कहो! कि सत्य फिर विचार लूँ ज़रा. -- ऐसा लगा जैसे मेरी बात कह दी आपने , वाह ॥
कुछ दिनों पूर्व मंच पर ये चर्चा हुयी थी कि..क्या हिंदी की गज़ल उर्दू की गज़ल की तरह ही समर्थ है????
मुझे लगता है,इसका उत्तर इस बेहतरीन हिंदी गज़ल ने दे दिया है!
आभार सहित हार्दिक बधाई आदरणीया!
सादर!
आदरणीया प्राची जी पहले तो आपको इस शानदार हिंदी ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई ..कभी मुकेश के अंदाज में गुनगुनाया कभी हेमंड डा के अंदाज में वक्त रुक! न धड़कनों सा तेज़ तू मचल
ख्वाब एक यकीन में उतार लूँ ज़रा.. एक पर मैं भी अटका था लेकिन आदरणीया राज जी की प्रतिक्रिया में यह बिंदु शामिल था पहले शेरे पर मेरे मन में उठे प्रश्न पर आदरणीय समीर जी और आदरणीया राज जी की प्रतिक्रिया पहले ही हो चुकी है ..आज एक लम्बे अरसे के बाद आपकी ग़ज़ल पढने को मिली मंत्रमुग्ध करती रचना ..माथे पर बल डालती रचनाये पढ़ते पढ़ते कभी इस तरह की सीधे दिल में उतरने वाली कोई रचना मिल जाती है ..इस शानदार रचना के लिए एक बार पुनः बधाई के साथ साथ सादर
प्रिय प्राची जी ,सबसे पहले तो मखमली भाव से समृद्ध इस हिंदी ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई लीजिये अब शेर दर शेर कुछ कहना चाहूंगी
बादलों की ओट से उधार लूँ ज़रा
चाँद आज तुझको मैं निहार लूँ ज़रा..---ये शेर बहुत बेहतर हो सकता था पहले मिसरे में बादलों की ओट से उधार लेने की बात है किन्तु क्या उधार लेना है वो स्पष्ट नहीं है या तो सानी में ही ये बात क्लीयर हो जाती
एक कोशिश की है जरा देखिये ----
चाँद नूर तेरा मैं उधार लूँ जरा .
बादलों की ओट से निहार लूँ ज़रा
------या ---
बादलों से लम्हा इक उधार लूँ जरा
चाँद आज तुझको मैं निहार लूँ ज़रा..
कँपकँपा रहे अधर नयन मुँदे मुँदे
साँस की छुअन से ही पुकार लूँ ज़रा..----वाह्ह्ह्ह
शब्द शून्य सी फिज़ा हुई है पुरअसर
सिहरनों से रूह को सँवार लूँ ज़रा..--बहुत खूब
चाँद भी पिघल के कह रहा मचल मचल
चाँदनी में प्यार का निखार लूँ ज़रा..वाह
अब महक उठे बहक उठे प्रणय के पल
इन पलों में ज़िन्दगी गुज़ार लूँ ज़रा..क्या बात है
वक्त रुक! न धड़कनों सा तेज़ तू मचल
ख्वाब एक यकीन में उतार लूँ ज़रा..--इसमें बह्र गडबडा रही है ----ख़्वाब एक के बाद कोई दीर्घ आना था
झूठ है, तो क्या हुआ? है ज़िन्दगी मगर
मत कहो! कि सत्य फिर विचार लूँ ज़रा.---अतिसुन्दर
इस सुन्दर प्रयास पर बहुत- बहुत बधाई प्रिय प्राची जी
प्रिय मनोज भाई जी,
ग़ज़ल पर आपकी महीन पाठकीय दृष्टि और कथ्य संवेदनाओं को आत्मसात कर आस्वादन करने के लिए हार्दिक धन्यवाद.
मतले में यकीनन आप 'उधार' शब्द को लेकर कुछ व्याख्या चाहते होंगे..
Non-possession और gratitude के भाव से किसी दुर्लभ प्रतीत होती वस्तु विशेष के क्षणिक सामीप्य की चेष्टा...'उधार' ही होगी न !!! :))
//और वरिष्ठ साहित्यकारों की रचना पर टिप्पणी करने से बचत भी हूँ//..... अरे भाई यहाँ पर तो हम सभी सीख रहे हैं और ये परस्पर सीखना सिखाना को तो मंच का मूल है... वरिष्ठता और लघुता की भावना से ओबीओ अस्पृष्ट है यहाँ सिर्फ रचनाएं ही सम्मान पाती हैं या सुधार के इंगित की जाती हैं. आप रचनाओं के दायरे में बेबाकी से टिप्पणी करें..(बिना रचनाकार को देखे) यही अपेक्षित भी है
ग़ज़ल आपको मोह सकी जानना प्रयास के प्रति आश्वस्तिकारी है..कथ्यअनोमोदित करने के लिए आभार आ० समर कबीर जी
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