मूक अंतर्वेदना स्वर को तरसती रह गयी
आँख सागर आँसुओं का सोख पीड़ा सह गयी
मानकर जीवन तपस्या अनवरत की साधना
यज्ञ की वेदी समझ आहूत की हर चाहना
मन हिमालय सा अडिग दावा निरा ये झूठ था
उफ़! प्रलय में ज़िंदगी तिनके सरीखी बह गयी
मूक अंतर्वेदना....
खोज कस्तूरी निकाली रेडियम की गंध में
स्वप्न का आकाश भी ढूँढा कँटीले बंध में
दिख रही थी ठोस अपने पाँव के नीचे ज़मीं
राख की ढेरी मगर थी भरभरा कर ढह गयी
मूक अंतर्वेदना....
बाँध डालूँ रेत भी चट्टान सम जो चाह लूँ
जीत की संभावना होगी वहीं जो राह लूँ
लक्ष्य पर हो क्या? कठिन है आज फिर यह फैसला
हर घड़ी संवेदना क्यों सह सभी निग्रह गयी
मूक अंतर्वेदना....
चेतना का स्पंद क्रंदित, कर उठा प्रतिकार अब
किन्तु ले गाण्डीव उसको यह हुआ स्वीकार कब?
सारगर्भित मत समझ निःसार इस संसार को
आज फिर अवरुद्ध श्वासों की घुटन ये कह गयी
मूक अंतर्वेदना....
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
गीति-काव्य काप्रवाह कितना मुग्धकारी हुई करता है, यह आपकी प्रस्तुति से सहज ही समझा जा सकता है. आदरणीय मिथिलेश भाई के हवाले से सार्थक सवाल और मुद्दे उठाये गये हैं.
आपकी रचनाधर्मिता सतत बनी रहे. हार्दिक शुभकामनाएँ
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी
प्रस्तुति का कहन/सार भाव आपको पसंद आया...जानकर लेखन को संबल मिला है
आपका बहुत बहुत धन्यवाद
सादर
आदरणीय मिथिलेश जी
प्रस्तुत गीत पर के शिल्प कहन भाव व शब्द चयन पर आपका अनुमोदन प्रयास सही हो सका है इस पर आश्वस्त करता हुआ है... आपका बहुत बहुत आभार
आपने बिलकुल सही कहा... अब और कब के कारण ये प्रस्तुति गीतिका छंद की जगह बहर-ए- रमल पर आधारित है अन्यथा सभी जगह अंत में पताका निर्वहन हुआ है
उद्दृत्त पंक्ति में टंकण त्रुटी रह गयी थी...आपके इंगित करने पर ध्यान गया शब्द निकली' नहीं 'निकाली' है
इस हेतु भी आपका सादर धन्यवाद
प्रस्तुत गीत का कथ्य आपको पसंद आया और आपकी मुखर सराहना प्राप्त हुईआपकी आभारी हूँ आ० शेख शाहजाद उस्मानी जी
प्रस्तुत अभिव्यक्ति पर आपकी उपस्थिति और सराहना के लिए धन्यवाद आ० नीरज कुमार जी
आदरणीया कान्ता रॉय जी
गीत के भाव आपके हृदय तक पहुंचे और आपको गीत पसंद आया.. मुझे आत्मिक संतोष हुआ है
आपके सराह्नात्मक अनुमोदन के लिए दिल से धन्यवाद
आदरणीया प्राची जी , ज़िन्दगी की सच्चाइयाँ समझाती आपकी इस सारगर्भित गीत रचना के लिये हार्दिक बधाइयाँ ॥ अंतिम बन्ध बहुत पसंद आया इस बन्द के लिये बार बार बधाई आपको ॥
खोज कस्तूरी निकाली रेडियम की गंध में -- क्या ये सही रहेगा ?
आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी,
सबसे पहले आपको इस शानदार प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई. आपकी प्रस्तुति पढ़कर दिल खुश हो जाता है. आपका शब्द चयन कमाल का होता है. एक एक शब्द मोती जैसा पिरोया हुआ. गहन भावों के साथ सुगठित शिल्प का संयोग आपकी प्रस्तुतियों की विशेषता है.
बह्र-ए-रमल (फाइलातुन-फाइलातुन-फाइलातुन-फ़ाइलुन) में बहुत बढ़िया गीत हुआ है. यदपि गीत का मुखड़ा और पहला अंतरा पढ़कर गीतिका छंद आधारित गीत लग रहा था किन्तु दूसरे और चौथे अंतरे में मगर, अब, कब का प्रयोग देखकर इसे रमल के अंतर्गत ही मानना उचित लगा. गीत का मुखड़ा बहुत प्रभावशाली है. अंतिम अन्तरा लाजवाब हुआ है.
चेतना का स्पंद क्रंदित, कर उठा प्रतिकार अब
किन्तु ले गाण्डीव उसको यह हुआ स्वीकार कब?
सारगर्भित मत समझ निःसार इस संसार को
आज फिर अवरुद्ध श्वासों की घुटन ये कह गयी
मूक अंतर्वेदना....
इस प्रस्तुति पर आपको बहुत बहुत बधाई
खोज कस्तूरी निकली रेडियम की गंध में---- इस पंक्ति में लय टूट रही है यहाँ संभवतः निकली को निकलती किया जा सकता है. सादर
मूक अंतर्वेदना स्वर को तरसती रह गयी ... बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
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