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आ के फ़िर से खूने जिगर तू कर, दिलो-जान तुझपे फ़िदा करूँ
कोई कैनवास नया दे, रंगे-वफ़ा मैं फ़िर से भरा करूँ
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तेरी आँख को कभी झील तो कभी आसमां कहूँ और शाम
उसी खिडकी पर मै पलक बिछा, अपलक क़ुरान पढ़ा करूँ
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नहीं चाँदनी है नसीब मेरा तो ख़्वाब रख के सिराहने
तेरी स्याह गेसुओं में छुपे हुए, जुगनुओं को गिना करूँ
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तेरी बज्म के हैं जो क़ायदे, न कभी कुबूल रहे मुझे
मुझे तिश्नगी मिली बेहिसाब, हिसाब में क्यूँ पिया करूँ?
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न शबाब है न शराब है,लत-ए-बेख़ुदी तो खराब है
ये गिलास भर दे मेरे ख़ुदा,मै बिन उसके होश का क्या करूँ
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न विसाले-य़ार मुझे,तलाशे-खुदा भी तो नही ‘जान’ अब
ये फरेब ख़ुद को दूँ और तुझको मैं भूलने की दुआ करूँ
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मौलिक व् अप्रकाशित © ‘जान’ गोरखपुरी
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Comment
सादर आभार आ० विजय सर!गज़ल पर आपकी उपस्थिति पाकर अभिभूत हुआ!नमन!
गजल पर आपके इस स्नेह के लिए बहुत आभारी हूँ आ० सुशील सरना जी!
सादर.
नहीं चाँदनी है नसीब मेरा तो ख़्वाब रख के सिराहने
तेरी स्याह गेसुओं में छुपे हुए, जुगनुओं को गिना करूँ
गज़ब गज़ब गज़ब … इन रेशमी अहसासों से लबरेज़ ग़ज़ल के लिए दिल से शेर दर शेर दाद कबूल फरमाएं आदरणीय।
प्रिय कृष्णा -बहुत बढ़िया शानदार -जानदार ,
kya bat
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