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बलवाइयों के होंसले जाकर समेट लूँ
मासूम गर्दनों पे हैं खंजर समेट लूँ
आये न बददुआ कभी मेरी जुबान पे
गलती से आ गई तो भी अन्दर समेट लूँ
उम्मीद से बनाया हैं बच्चे ने रेत का
लहरों वहीँ रुको मैं जरा घर समेट लूँ
परवाज आज भर रहा पाखी नई नई
आँखों की चिलमनों में ये मंजर समेट लूँ
जिन्दा रहे यकीन मुहब्बत के नाम पर
फेंके हैं दोस्तों ने जो पत्थर समेट लूँ
ए तितलियों सँभाल के रक्खा उन्हें कहाँ
यादें वो बचपने की मैं आकर समेट लूँ
जद्दो जहद में जीस्त की हासिल हुए मुझे
उस पर हुजूर चाहते मैं पर समेट लूँ
मुझको मेरे खुदा तू जरा बख्श दे वजूद
अश्कों का मैं गरीब के सागर समेट लूँ
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ० समर कबीर भाई जी ,ग़ज़ल आपको पसंद आ गई आपकी कसौटी पर खरी उतरी मेरी मेहनत सफल हो गई इस होंसलाफ्जाई के लिए आपका तहे दिल से बहुत बहुत बहुत शुक्रिया|
प्रिय प्रतिभा पाण्डेय जी ,आपका तहे दिल से आभार |
आ० रवि शुक्ल जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ इस जर्रानवाजी का दिल से बहुत- बहुत शुक्रिया आभार|
ए तितलियों सँभाल के रक्खा उन्हें कहाँ
यादें वो बचपने की मैं आकर समेट लूँ ....... भा गई ये पंक्तियाँ आदरणीया बधाई आपको
राहिला जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ दिल से आभार आपका |
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