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गज़ल - अदीबों की ज़ुबाँ में कुछ , इरादे और ही कुछ हैं - गिरिराज भंडारी

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कहो कुछ तो समझ के भी जताते और ही कुछ हैं

अदीबों की ज़ुबाँ में कुछ , इरादे और ही कुछ हैं  

 

रवादारी हो , रस्में या कोई हो मज़हबी बातें

अलग ऐलान करते हैं, सिखाते और ही कुछ हैं

 

उन्हें मालूम है सच झूठ का अंतर मगर फिर भी  

दबा कर हर ख़बर सच्ची , दिखाते और ही कुछ हैं  

 

जो क़समें दोस्ती की रोज़ खाते हैं, बिना पानी

जरा सी आड़ मिल जाये , निभाते और ही कुछ हैं

 

गिज़ा जिस मुल्क से पा के, मिली हाथों को मज़बूती

उन्हीं हाथों से परचम वो , हिलाते और ही कुछ हैं

 

वो सारे बे अदब निकले, अदीबों में जो थे शामिल

सभी उन पारसाओं के , निशाने और ही कुछ हैं  

 

बबूलों के जने हैं जो , महज़ कांटे बिखेरेंगे

दिखा कर फूल के पौधे , उगाते और ही कुछ हैं

*******************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Shyam Narain Verma on November 9, 2015 at 4:42pm
क्या खूब ग़ज़ल कही है आपने वाह बहुत बहुत बधाई इस बेहतरीन रचना के लिये
Comment by amod shrivastav (bindouri) on November 8, 2015 at 7:13pm
सर बेहद सुन्दर अशआर लिखे है नमन शेर दर शेर
और दीपावली की भी सादर शुभ कामनाएँ

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 8, 2015 at 7:10pm

आदरणीय गिरिराज सर, आपने कमाल की ग़ज़ल कही है, लाजवाब .... एक एक अशआर लाज़वाब हुआ है. इस शानदार ग़ज़ल पर शेर दर शेर दाद हाज़िर है-

कहो कुछ तो समझ के भी जताते और ही कुछ हैं
अदीबों की ज़ुबाँ में कुछ , इरादे और ही कुछ हैं .............. लाज़वाब मतला हुआ है 

रवादारी हो , रस्में या कोई हो मज़हबी बातें
अलग ऐलान करते हैं, सिखाते और ही कुछ हैं............... बिलकुल सही 

उन्हें मालूम है सच झूठ का अंतर मगर फिर भी
दबा कर हर ख़बर सच्ची , दिखाते और ही कुछ हैं ................ शानदार शेर 

जो क़समें दोस्ती की रोज़ खाते हैं, बिना पानी
जरा सी आड़ मिल जाये , निभाते और ही कुछ हैं................ वाह वाह वाह 

गिज़ा जिस मुल्क से पा के, मिली हाथों को मज़बूती
उन्हीं हाथों से परचम वो , हिलाते और ही कुछ हैं................. सही बात 

वो सारे बे अदब निकले, अदीबों में जो थे शामिल
सभी उन पारसाओं के , निशाने और ही कुछ हैं ................... कमाल का शेर 

बबूलों के जने हैं जो , महज़ कांटे बिखेरेंगे
दिखा कर फूल के पौधे , उगाते और ही कुछ हैं.................. बेहतरीन 

'और ही कुछ हैं' जैसी कठिन  रदीफ़ को इतनी सहजता से निभा लिया आपने. इस शानदार ग़ज़ल पर दाद और मुबारकबाद कुबूल फरमाएं. सादर 

Comment by Sushil Sarna on November 8, 2015 at 12:51pm

बबूलों के जने हैं जो , महज़ कांटे बिखेरेंगे
दिखा कर फूल के पौधे , उगाते और ही कुछ हैं

खूबसूरत अहसासों की खूबसूरत ग़ज़ल … वाह वाह और वाह ही कहेंगे हम इस पेशकश पर .... हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय।

Comment by Ajay Kumar Sharma on November 8, 2015 at 11:54am

आदरणीय गिरिराज सर वाह वाह। बेहतरीन बेजोड़।

Comment by Manan Kumar singh on November 8, 2015 at 10:53am
बेजोड़ गिरिराज भाई,शुक्रिया!एक बार और आना पड़ेगा मुझे बेशक।

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