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हथेली खून से जो तर हुई थी
न जाने क्यूँ यहाँ रहबर हुई थी
जो सच जाना उसे सहना कठिन था
ज़बाँ तो इसलिये बाहर हुई थी
कि उनके नाम में धोखा छिपा है
समझ धीरे सहीं , घर घर हुई थी
वही इक बात जो थी प्रश्न हमको
वही आगे बढ़ी , उत्तर हुई थी
निकाले जब गये सब ओहदों से
ज़मीं बस उस समय बेहतर हुई थी
कहीं पंडित मरे, टूटे थे मन्दिर
कहो कब आँख किसकी तर हुई थी ?
हाँ, नफरत खून में शामिल है , इनके
तबाही इस लिये दर दर हुई थी
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
हमेशा की तरह एक और शानदार गज़ल। हार्दिक बधाई, आदरणीय भाई गिरिराज जी।
आदरणीय मिथिलेश भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका शुक्रिया ।
शेर पर किस लिहाज से पुनः विचार किया जाना चाहिये आपने बताया नही है , मुझे देखने से काल दोष नज़र आया है , सो उसे मै यूँ कर रहा हूँ --
हाँ, नफरत खून में शामिल था , उनके
तबाही इस लिये दर दर हुई थी
सलाह साफ सब्दों मे दी होती तो जियादा समझ मे आता , फिर भी , अब देख कर बताइयेगा ।
आदरणीय गिरिराज सर, बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद हाज़िर है.
आखिरी शेर पर पुनर्विचार निवेदित है. सादर
आदरणीय विजय शंकर भाई , आपकी उपस्थिति और गज़ल की सराहना के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।
आदरणीय अरुण भाई , आपकी उपस्थिति आनन्द दायी है , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।
अलग ही तेवर में गज़ल लिख दी है गिरिराज भाई....
वही इक बात जो थी प्रश्न हमको
वही आगे बढ़ी , उत्तर हुई थी
निकाले जब गये सब ओहदों से
ज़मीं बस उस समय बेहतर हुई थी
इन अश'आरों पर मेरी खास दाद स्वीकारें.
आदरनीय बड़े भाई गोपाल जी , गज़ल को आपका आशीष मिला तो ग़ज़ल कहना सफल हो गया , आपका हृदय से आभार ।
बहुत बढ़िया अनुज
कहीं पंडित मरे, टूटे थे मन्दिर
कहो कब आँख किसकी तर हुई थी ?
हाँ, नफरत खून में शामिल है , इनके
तबाही इस लिये दर दर हुई थी-------------- मुबारक हो सादर.
आदरणीया कांता जी , गज़ल की सराहना के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।
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