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गज़ल - कहीं पंडित मरे, टूटे थे मन्दिर - गिरिराज भंडारी

1222    1222    122

हथेली खून से जो तर हुई थी

न जाने क्यूँ यहाँ रहबर हुई थी

 

जो सच जाना उसे सहना कठिन था

ज़बाँ तो इसलिये बाहर हुई थी

 

कि उनके नाम में धोखा छिपा है

समझ धीरे सहीं , घर घर हुई थी  

 

वही इक बात जो थी प्रश्न हमको

वही आगे बढ़ी , उत्तर हुई थी

 

निकाले जब गये सब ओहदों से

ज़मीं बस उस समय बेहतर हुई थी

 

कहीं पंडित मरे, टूटे थे मन्दिर

कहो कब आँख किसकी तर हुई थी ?

 

हाँ, नफरत खून में शामिल है , इनके

तबाही इस लिये दर दर हुई थी

*******************************
मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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Comment by vijay nikore on December 16, 2015 at 3:12pm

हमेशा की तरह एक और शानदार गज़ल। हार्दिक बधाई, आदरणीय भाई गिरिराज जी।


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Comment by गिरिराज भंडारी on December 7, 2015 at 6:14am

आदरणीय मिथिलेश भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका शुक्रिया ।
शेर पर किस लिहाज से पुनः विचार किया जाना चाहिये आपने बताया नही है , मुझे देखने से काल दोष नज़र आया है , सो उसे मै यूँ कर रहा हूँ --

हाँ, नफरत खून में शामिल था , उनके

तबाही इस लिये दर दर हुई थी

सलाह साफ सब्दों मे दी होती तो जियादा समझ मे आता , फिर भी , अब देख कर बताइयेगा ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 7, 2015 at 4:39am

आदरणीय गिरिराज सर, बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद हाज़िर है. 

आखिरी शेर पर पुनर्विचार निवेदित है. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 6, 2015 at 7:44pm

आदरणीय विजय शंकर भाई , आपकी उपस्थिति और गज़ल की सराहना के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 6, 2015 at 7:43pm

आदरणीय अरुण भाई , आपकी उपस्थिति आनन्द दायी है , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।

Comment by Dr. Vijai Shanker on December 6, 2015 at 1:02pm
वही इक बात जो थी प्रश्न हमको
वही आगे बढ़ी , उत्तर हुई थी।
बधाई , आदरणीय गिरिराज भंडारी जी , गम्भीर प्रस्तुति , सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on December 6, 2015 at 12:53pm

अलग ही तेवर में गज़ल लिख दी है गिरिराज भाई....

वही इक बात जो थी प्रश्न हमको

वही आगे बढ़ी , उत्तर हुई थी

 

निकाले जब गये सब ओहदों से

ज़मीं बस उस समय बेहतर हुई थी

इन अश'आरों पर मेरी खास दाद स्वीकारें. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 6, 2015 at 12:36pm

आदरनीय बड़े भाई गोपाल जी , गज़ल को आपका आशीष मिला तो ग़ज़ल कहना सफल हो गया , आपका हृदय से आभार ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 6, 2015 at 12:10pm

बहुत बढ़िया अनुज

कहीं पंडित मरे, टूटे थे मन्दिर

कहो कब आँख किसकी तर हुई थी ?

 

हाँ, नफरत खून में शामिल है , इनके

तबाही इस लिये दर दर हुई थी-------------- मुबारक हो  सादर.


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Comment by गिरिराज भंडारी on December 5, 2015 at 8:10pm

आदरणीया कांता जी , गज़ल की सराहना के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।

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