ग़ज़ल
२१२२/१२१२/२२ (११२)
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अपने अहसास दर-ब-दर रखते,
उन से उम्मीद हम अगर रखते.
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कौन आता यहाँ, जो पूछता ‘वो’,
चाँद तारों में हम भी घर रखते.
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नींद आती जो रात भर के लिए,
उन को ख़्वाबों में रात भर रखते.
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जंग से क़ब्ल हार जाते हम,
दिल में ज़ालिम का हम जो डर रखते
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वो ख़ुदा ही मिला नहीं हम को,
जिस के क़दमों पे अपना सर रखते.
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मुख़बिरी करते थे ज़माने की,
काश ख़ुद की भी कुछ ख़बर रखते.
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छोड़ देते शराब कब की हम
तुम निगाहों में वो असर रखते!
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निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित
Comment
तुम आ गए हो, नूर आ गया है
नहीं तो ........................
शानदार ग़ज़ल
दाद ही दाद
वाह कमाल के अशार कहें हैं .....
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