मुहब्बत की डगर में फिर किसी का हो के देखूँ
किसी की झील सी आँखों में फिर से खो के देखूँ
अब इन आँखों से उसके प्यार का चश्मा उतारूँ
जहां में हैं बहुत से रंग आँखें धो के देखूँ
जिसे मैं प्यार करता था वो मेरा हो न पाया
जो मुझसे प्यार करता है मैं उसका हो के देखूँ
बहुत दिन हो गए आँखों को कोई ख़्वाब देखे
चलो शानो पे सर रख कर किसी के सो के देखूँ
कोई तो बढ़ के 'सूरज' आँसुओ को पोछ लेगा
मुहब्बत में चलो इक बार फिर से रो के देखूँ
डॉ सूर्या बाली 'सूरज'
(मौलिक और अप्रकाशित )
Comment
आदरणीय बाली जी ..हर शेर रूमानियत से भरा है ..इस दिलकश ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर
कोई तो बढ़ के 'सूरज' आँसुओ को पोछ लेगा
मुहब्बत में चलो इक बार फिर से रो के देखूँ .... वाह वाह और वाह ही निकलती इस दिल से इस ग़ज़ल के लिए .... इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय ..... ४ लाइनें आपके लिए
आप जब लिखते हैं तो गज़ब लिखते हैं
कागज़ पे मुहब्बत का मज़हब लिखते हैं
बढ़ता रहे ये नूर यूँ ही शे'रों का आपके
हर्फ़ों में आप जीने का सबब लिखते हैं
आदरनीय सूर्या बाली भाई , हमेशा की तरह आपकी ये गज़ल भी बहुत खूबसूरत हुई है , दिली मुबारकबाद स्वीकार करें ।
जिसे मैं प्यार करता था वो मेरा हो न पाया
जो मुझसे प्यार करता है मैं उसका हो के देखूँ
बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है आ० सूर्य भाई हार्दिक बधाई l
वाह वाह बहुत दिनों बाद आपकी खूबसूरत ग़ज़ल आई है शेर दर शेर दिल से दाद कुबूलें आ० सूर्या बाली जी
आदरणीय डॉ सूर्या बाली जी बहुत ही प्रवाह पूर्ण और शानदार कथ्य से परिपूर्ण ग़जल के लिये शेर दर शेर बधाई कुबूल करें
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