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अपने लहू से आज वो अन्जान बन गये
टूटे हुए मकान का सामान बन गये
ज़ज्बात से किसी को यहाँ वास्ता नहीं
ड्राइंग रूम में रखा दीवान बन गये
बेगानों की तरह रहे अपने ही देश में
बस चार पाँच दिन के ही मेह्मान बन गये
अपने ही घर में किश्तियाँ महफूज़ हैं कहाँ
साहिल के आस पास ही तूफ़ान बन गये
छोड़ी कसर न देखिये कुदरत को लूटकर
आफ़ात आ पड़ी तो अब इंसान बन गये
करतूत वो करें किसी शैतान की तरह
क़ानून की निगाह में नादान बन गये
भगवान बनते फिरते हैं दिन के उजाले में
खुर्शीद ज्यों ही ढल गया शैतान बन गये
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
बहुत- बहुत शुक्रिया गुमनाम जी .
बहुत खूब ............ अच्छी ग़ज़ल हुई है बधाई ................
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय श्याम नारायण जी
शानदार रचना आदरणीया बहुत२ बधाई |
मोहतरम तस्दीक जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका तहे दिल से शुक्रिया| आखिरी शेर मेरे हिसाब से तो बा बह्र है |
मोहतरमा राजेश कुमारी जी ,..... बेहतर ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं। ....... आखरी शेर के ऊला मिसरे में कुछ रवानगी में। ...... देख लीजियेगा
आ० डॉ० गोपाल भाई जी आपका तहे दिल से बहुत- बहुत शुक्रिया |
आ० सतविंदर कुमार जी आपका तहे दिल से शुक्रिया |
तहे दिल से बहुत- बहुत शुक्रिया गुमनाम पिथौरागढ़ी जी |
आ० नीरज कुमार जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ दिल से आभार आपका .
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