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कायम जड़ें (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"सर, आज इसको भी आतंकवादियों ने निपटा दिया!"

"देखो, शायद जान बाक़ी है इसमें!"

"सर, इसका तो पूरा धड़ उड़ा दिया हत्यारों ने!"

"लेकिन पैर हैं, जड़ें कायम हैं, आहार मिलेगा तो शायद जी उठे!"

बच्चे पुलिस-पुलिस और सी.आइ.डी. का खेल खेलते हुए पेड़ के बचे ठूंठ पर ऐसा बोल गये जैसे कि किसी धर्म और संस्कृति पर बात हुई हो!

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on April 6, 2016 at 8:03pm
रचना के मर्म का अनुमोदन करने व प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय नीरज कुमार नीर जी।
Comment by Neeraj Neer on February 6, 2016 at 7:43pm

वाह , बहुत ही गहन बात .....धर्म और संस्कृति की जड़ें ..........बहुत बधाई इस रचना के लिए 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on February 5, 2016 at 11:44am
आप वरिष्ठ सुधीजन की मेरी पोस्ट पर उपस्थिति से मैं धन्य हुआ। समीक्षात्मक टिप्पणियों द्वारा मुझे स्नेहिल प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया डॉ. प्राची सिंह जी, आदरणीय मिथिलेश वामनकर साहब, आदरणीय तस्दीक़ अहमद ख़ान साहब और आदरणीया कान्ता राय जी।
Comment by Tasdiq Ahmed Khan on February 4, 2016 at 9:12pm

सही फ़रमाया जनाब शेख़ शहज़ाद उस्मानी साहिब ,जड़ें अगर सलामत हैं तो शजर एक दिन पनप ही जायेगा। .... अच्छी लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 4, 2016 at 12:18am

बहुत बढ़िया आदरणीय उस्मानी जी, आपने कथ्य को बहुत ही सटीक ढंग से शाब्दिक किया है. इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 3, 2016 at 3:49pm

बहुत सुन्दर प्रस्तुति,,

विषय वस्तु को जिस सांद्रता और बिम्बों के ज़रिये प्रस्तुत किया है, वह बहुत सुन्दर है 

बहुत बहुत बधाई

Comment by kanta roy on February 3, 2016 at 12:22am

वाह ! बहुत ही गूढ़ लेखन है आपका यहां आदरणीय शहज़ाद जी। बेहतरीन लघुकथा।  बधाई  कबूल फरमाइयेगा। 

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