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//तुम घर कभी मत आना
अब यहाँ घर नहीं है कहीं भी
वो बिखर गया है
एक आँधी उठी थी
बहुत कुछ टूटा था उस दिन
उन टुटे हुए टुकड़ों पर
मौत को ढूंढती है अब जिंदगी
इन वीरान गलियों में
कसम है तुम्हें
तुम मत आना कभी//
आपकी रचना को पढ़ता गया और लगा कि मेरा मन भी परी से वही आग्रह कर रहा है जो आपने किया, आपने लिखा ... कि जैसे यह कविता आपकी है परन्तु भावनाएँ पाठक की हैं .. संवेदना उमड़ती चली आती है ... पढ़्ते-पढ़ते मन को पकड़ना पड़ता है, संभालना पड़ता है। इस भाव-प्रधान रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई, आदरणीया कांता जी।
आदरणीया कांता जी, प्रभावित करती इस सुन्दर प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई.
वाह-वाह ! बहुत ही भाव भरा कथ्य लिये पंक्ति-दर-पंक्ति यह कविता खुलती जाती है, आदरणीया कान्ताजी. परी के ’यहाँ’ न आने का आह्वान दिल को कचोट कर रख देता है. यह सहज निर्णय कत्तई नहीं है कि परी को न आने के लिए मनाया जाय. आपके रचनाकार ने तमाम कारण गिनाये हैं. उन कारणों के प्रति पाठकों की भी सहमति बनती जाती है. पाठक के मन की ’माँ’ चीख उठती है.
इस संवेदनापूरित प्रस्तुति केलिए हार्दिक बधाइयाँ.
यह अवश्य है कि प्रस्तुतीकरण के सापेक्ष यह कविता लचर-सी दिखती है. व्याकरण और अक्षरी की अशुद्धियाँ सहज वाचन में बाधक हैं. इनके प्रति अवश्य संवेदनशील होना होगा. वर्ना आपका गहन मंथन शाब्दिक हो कर ढंग से संप्रेषित नहीं हो पायेगा. वैसे भी आपको इस पटल पर आये हुए अरसा हो गया है.
सित्कार की सही अक्षरी सीत्कार है. लेकिन क्या इसका ऐसा ही कुछ अर्थ है जैसा आपकी कविता में प्रयुक्त हुआ है ? देख लीजियेगा.
फिर राजकुमारियों संज्ञा के बाद उसके लिए का क्यों प्रयोग हुआ है ? उनके लिए आना था न ? और, धुआँ का बहुवचन धुआँओं कहाँ देख लिया आपने, आदरणीया ?
शुभ-शुभ
तुम घर कभी मत आना
अब यहाँ घर नहीं है कहीं भी
वो बिखर गया है
एक आँधी उठी थी
बहुत कुछ टूटा था उस दिन
उन टुटे हुए टुकड़ों पर
मौत को ढूंढती है अब जिंदगी
इन वीरान गलियों में
कसम है तुम्हें
तुम मत आना कभी
वाह आदरणीया वाह अंतर्द्वंद की दिल को छूती इस प्रवाहमयी मार्मिक प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
हार्दिक बधाई आदरणीय कांता जी!बहुत ही मार्मिक एवम हृदय स्पर्शी प्रस्तुति!
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