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 कुछ भी

अनुपयोगी नहीं है

उसके लिए

सभी पर है

उसकी निगाहें 

गहन कूड़े से भी

बीन और लेता है छीन

वह

प्राप्य अपना 

जो है जगद्व्यव्हार में

वह भी

और जो नहीं है वह भी

बीन लेगा एक दिन वह 

पेड़ –पौधे,  नदी=-पर्वत

और पृथ्वी

यहां तक की जायेगा ले    

सूरज गगन, नीहार, तारे

चन्द्र भी
ब्रह्माण्ड के सारे समुच्चय

लोग कहते हैं प्रलय 

कहते रहे  

किन्तु तय है

बीन कर ले जाएगा सब

एक दिन सचमुच

काल है

ऐसा कबाड़ी 

(मौलिक व् अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 17, 2016 at 11:38am

 आ0 भाई गोपाल नारायण जी इस अद्भुत रचना के लिए बहुत बहुत बधाई ।

Comment by amod shrivastav (bindouri) on February 15, 2016 at 3:50pm
आ सर सादर प्रणाम बहुत खूब सादर बधाई
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on February 15, 2016 at 12:13pm
'क'- से 'कबाड़ी'/'क़यामत'/'कायनात'/'कारनामे'/'कायाकल्प'........
यह होना ही है "एक दिन".....
__बिगड़ती "लय"..."प्रलय"..ही तो लायेगी न!.....
बेहतरीन चिंतन/संदेश! बहुत बहुत हार्दिक बधाई आपको आदरणीय डॉ.गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी।
Comment by Rahila on February 15, 2016 at 9:04am
सचमुच बीन लेगी कयामत सब कुछ, ये नजरें भी, ये नजारे भी । जीवन की वो कड़वी सच्चाई जिससे सब को एक दिन दो चार होना है ।आपकी कविता ने इस भागती दौड़ती जिदगीं को दो पल। के लिये रोक लिया।बहुत बधाई आपको आदरणीय सर जी । सादर प्रणाम।

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