संध्या के बाद पूर्व ऊषा तक जो निशि भाग चुना मैंने I
उस शब्द-हीन सन्नाटे में ईश्वर का राग सुना मैंने II
पुच्छल तारे की थी वीणा
शशि-कर के तार सजीले थे
उँगलियाँ चलाता था मारुत
रजनीले लोचन गीले थे
सरगम संगीत प्रवाहित था अपना प्रतिभाग गुना मैंने I
संध्या के बाद पूर्व ऊषा ---------------------------------
मुखरित होता है मौन कभी
नीरवता में भी रव होता
धरती पर आना फिर जाना
इतने में भव संभव होता
रंगों की होली भी खेली जीवन का फाग बुना मैंने I
संध्या के बाद पूर्व ऊषा ----------------------------
उसकी उदात्त चिर छाया का
कैसा उपहास किया हमने ?
वह भूल गया अपना गायन
संसृति का नाश किया हमने
सपनीले सब सन्दर्भ तोड़ अपना सिर जाग धुना मैंने I
संध्या के बाद पूर्व ऊषा तक जो निशि भाग चुना मैंने I
उस शब्द-हीन सन्नाटे में ईश्वर का राग सुना मैंने I
(मौलिक व अप्रकाशित )
Comment
मुखरित होता है मौन कभी
नीरवता में भी रव होता
धरती पर आना फिर जाना
इतने में भव संभव होता
रंगों की होली भी खेली जीवन का फाग बुना मैंने I
संध्या के बाद पूर्व ऊषा ----------------------------,सुन्दर गीत पर हार्दिक बधाई आदरणीय, सादर
आदरणीय गोपाल सर बहुत शानदार गीत लिखा है आपने. गुनगुनाकर मुग्ध हो गया. इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई
एक निवेदन -संभवतः आप गीत का शीर्षक या विषय लिखना भूल गए इसलिए गीत का शीर्षक इतना बड़ा हो गया. सादर
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