तुम गए तो प्राण का जाना लिखा
बिन तेरे निःश्वांस हो जाना लिखा।
देखिये ना प्रेम की जादूगरी
स्वयं को मीरा तुम्हें कान्हा लिखा।।1।।
जब कभी भी पूर्णिमा का चाँद निकला
खिडकियों से झांककर आगे चला।
भाग कर छत पर गया देखा तुम्हें
और झट से तेरा आ जाना लिखा।।।।2।।
एक भीनी सी सुरभि जब भी कभी
मेरे कमरों की हवाओं में घुली।
मैंने खुद को फिर मचलता देखकर
रात रानी का महक जाना लिखा।।3।।
जब कभी अवसाद सागर में मेरी
नाव मन की फँसी तूफाँ में घिरी।
नाम तेरा अधर पर मेरे आ गया
मैंने इसको नाव ख़े जाना लिखा।।4 ।।
वेदना की शीत नें पकड़ा कभी
कंपकपाती अस्थि को जकड़ा कभी।
आँखों से सपनों के पत्ते जब झरे
मौसम ए पतझर का आ जाना लिखा।।5।।
फिर तुम्हारी कल्पना पुष्पित हुई
पल्लवित मेरी चेतना फिर से हुई।
फिर तुम्हारी यादों के अंखुए उगे
अंकुरित यादों का हो जाना लिखा।।6।।
ज़िंदगी की धूप में तपते हुए
हृदय गृह का शीतलन करते हुए।
ज़ुल्फ़ की छाया जो तूनें कर दिया
सावनी बादल का छा जाना लिखा।।7।।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ0 भाई पंकज जी बहुत सनडर गीत हुआ है हार्दिक बधाई स्वीकरें l
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