121-22 121-22 121-22 121-22
ख़ुशी में तू है,है ग़म में तू ही,नज़र में तू, धड़कनों में तू है ।
मैं तेरे दामन का फूल हूँ,माँ मेरी रगों में तेरी ही बू है ।।
हरेक लम्हा सफ़र का मेरे ,भरा हुआ है उदासियों से ।
ये तेरी आँखों की रौशनी है, जो मुझमे चलने की आरज़ू है ।।
है तेरे क़दमों के नीचे जन्नत, ज़माना करता तेरी इबादत ।
तेरे ही रुतबे का देख चर्चा, माँ सारे आलम में चार सू है ।।
तमाम है रौनके जहाँ में ,जो बेकरारी नज़र में भर दें ।
मगर जो खाता है चोट इन्सां,लबो पे आती माँ सिर्फ तू है।।
मेरे गुनाहों की आँधियों में ,ये सारा गुलशन बिखर गया था
खिला है हाथों मेरे चमन फिर ,रगों में क्योंकि तेरा लहू है।।
कहीं कहा मादरे वतन औ, कहीं कहा है भवानी दुर्गा ।
है ज़र्रे ज़र्रे में तेरा जलवा, ज़माने में तेरी ज़ुस्तज़ू है।।
बलि चढ़े हैं पहन तिरंगा, तुम्हारे बेटे ओ भारती माँ।
बंधा है माथे पे भी कफ़न यें, हमारी धड़कन भी सुर्ख रू है।।
तमाम दुनिया तमाम मज़हब, कोई भी युग हो मगर मुसलसल ।
ज़माने भर की कहानियों का, तू ही है हासिल तू ही शुरू है ।।
तू पन्ना माँ है तू रानी झाँसी ,है जीजाबाई लगन शिवा की।
सदा से अपने लहू की खातिर, तू खुद बलि है तू जंगजू है।।
बसर ने अपनी हवस की खातिर,बना दिया है जहां जहन्नुम।
शिकस्त हो या फ़तेह कहीं हो,ज़मी पे बहता तेरा लहू है ।।
छलक उठी है मेरी निगाहें माँ, तेरी बातों का ज़िक्र करके।
ये अदला बदली की सारी दुनिया ,वफ़ा की सूरत तू हू-ब-हू है।।
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
अदभुत रचना....अदभुत अहसास....क्या कमाल भावों का समावेश किया है...बहुत बहुत बधाइयाँ
आदरणीय मनोज जी मॉं पर आपनेे बहुत अच्छे अशआर कहे है शेर दर शेर दाद और मुबारक बाद हाजिर है । तीसरे चौथे और अंतिम शेर में मॉं लफ्ज को गिरा कर वज्न में बांधा है । कुछ असहज लगा संज्ञा सूचक शब्द मॉं को गिरा कर म पढना विचार करियेगा ।
अच्छी ग़ज़ल हुई है आदरणीय मनोज जी, दाद कुबूल करें
आदरणीय मनोज भाई जी, माँ पर बहुत शानदार नज़्म कही है आपने. वैसे इसे मुसलसल ग़ज़ल भी कह सकते है. दाद ओ मुबारकबाद कुबूल फरमाएं.
लाजवाब रचना
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