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ग़ज़ल-नूर-अश्क आँखों से फिर बहा जाये,

२१२२/१२१२/२२ (११२)
.
अश्क आँखों से फिर बहा जाये,
अपना जाये, किसी का क्या जाये.
.
तुम अगर चश्म-ए-तर में आ जाओ,
झील में चाँद झिलमिला जाये.
 
.
ढ़लती उम्रों के मोजज़े हैं मियाँ
इक बुझा जाए, इक जला जाये.
.
याद माज़ी को कर के जी लूँगा, 
फिर जहाँ तक ये सिलसिला जाये.
.
ज़ह’न कहता है, कर ले सब्र ज़रा,
और दिल है कि बस मरा जाये.
.
गर्द हो .....तो..... उडो हवाओं में,
आसमां हो... तो फिर झुका जाये. ..... क्रमश:

.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 

आ. Saurabh Pandey जी की ग़ज़ल "ग़ज़ल - फूल भी बदतमीज़ होने लगे" ने मुझे ये ग़ज़ल कहने के लिए प्रेरित किया है. ये ग़ज़ल उन्ही को समर्पित करता हूँ.

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Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 7, 2016 at 8:08am

शुक्रिया आ. सुनील जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 7, 2016 at 8:08am

शुक्रिया आ. समर सर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 7, 2016 at 8:07am

शुक्रिया आ. नादिर खान साहेब 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 6, 2016 at 10:35pm
शुक्रिया अनुज जी
Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 6, 2016 at 10:32pm
शुक्रिया आ. डॉ गोपाल नारायण जी
Comment by Sushil Sarna on May 6, 2016 at 6:36pm

वाह आदरणीय नीलेश जी वाह बहुत खूब अशआर कहे हैं आपने , हार्दिक बधाई स्वीकार करें। 

Comment by Samar kabeer on May 6, 2016 at 6:25pm
जनाब निलेश'नूर'जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ ।
Comment by नादिर ख़ान on May 6, 2016 at 6:11pm

ज़ह’न कहता है, कर ले सब्र ज़रा,
और दिल है कि बस मरा जाये. 

सही कहा सर दिल कब किसी की सुनता है (दिल तो आखिर दिल है न)
.

गर्द हो .....तो..... उडो हवाओं में, 
आसमां हो... तो फिर झुका जाये....वाह क्या उम्दा बात कही आदरणीय नीलेश जी, बड़प्पन तो झुकने में ही है|

Comment by Anuj on May 6, 2016 at 5:54pm

तुम अगर चश्म-ए-तर में आ जाओ, 
झील में चाँद झिलमिला जाये.
  

हाँ इसे कहते है ग़ज़ल का शेर !!

बेशकीमत, अनमोल !!

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 6, 2016 at 3:52pm
सुभान अल्लाह --- बहुत खूब . सादर .

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