कितनी बंदिशें ज़िन्दगी में,
कितनी रुकावटें,
दिल नाशाद
दिमाग में रंजिशें।
बेपरवाह होके जीना,
इक गुनाह
घुट घुट के जीना,
इक सज़ा
न यह सही है न यह ग़लत
तिसपर भी ज़िन्दगी के हैं उसूल
औ नियम ,...... अनगिनत।
चाहा तो बहुत था
सब रहे सलामत
पर कब, कैसे बिगड़ गया,
याद भी नहीं रह गया
अब ये आलम है कि..... क्या है ,
क्या नहीं ,
पड़ता कहीं कोई फ़र्क़ नहीं।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
जीवन में कैसे कैसे सत्य से सामना होता है ,कैसे समझौते करने पड़ते हैं और फिर भी जीवन है कि चलता ही रहता है। एक छोटा सा प्रयास है यह कविता। आदरणीय प्रतिभा पांडेय जी , आपने अपनी उपस्थिति को इतने खूबसूरत शब्दों से सजाया है , मैं उपकृत हूँ। आपका ह्रदय से बहुत बहुत सादर धन्यवाद।
छोटे से कथ्य में आपने गंभीर बातें कह दी , कब ,क्या कैसे अनचाहा हो जाता है सच में पता नहीं पड़ता और फिर आ जाती है 'अब क्या फरक पड़ता है' वाली मानसिकता ,,बधाई प्रेषित है इस रचना पर आपको आदरणीया
आदरणीय बशर भारतीय जी , रचना पर सकारात्मक विचार हेतु सादर धन्यवाद
आदरणीय कल्पना भट्ट जी, रचना को पसंद करने और प्रशंसा के लिए हृदय से सादर धन्यवाद।
आदरणीय डॉ विजय शंकर सर , रचना के सार्थक मूल्यांकन हेतु आपको सादर धन्यवाद।
बहुत खूब | अच्छी रचना है आदरणीया | बधाई |
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