22 22 22 22 22 22
बात सही है आज भी , यूँ तो है प्राचीन
जिसकी जितनी चाह है , वो उतना गमगीन
फर्क मुझे दिखता नहीं, हो सीता-लवलीन
खून सभी के लाल हैं औ आँसू नमकीन
क्या उनसे रिश्ता रखें, क्या हो उनसे बात
कहो हक़ीकत तो जिन्हें, लगती हो तौहीन
सर पर चढ़ बैठे सभी , पा कर सर पे हाथ
जो बिकते थे हाट में , दो पैसे के तीन
बीमारी आतंक की , रही सदा गंभीर
मगर विभीषण देश के , करें और संगीन
कुछ तो सचमुच भैंस हैं , बाक़ी भैंस समान
कोई ये समझाये अब , कहाँ बजायें बीन
घर की सारी झंझटें , हो जायेंगी साफ
पिछले हों संस्कार सब , सुविधा अर्वाचीन
**********************************
मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय शेख शहज़ाद भाई , हौसला अफ्ज़ाई का शुक्रिया । गज़ल मे वैसे कोई कमी नही है , बात यह है कि क्या दोहा ग़ज़ल का कोई प्रारूप हो सकता है या इसे भी मात्रिक गज़ल ही समझा जाये ।
आदरणीय सौरभ भाई , आपकी विस्तृत प्रतिक्रिया से बहुत सी बात समझ मे आयीं हैं । किंतु ये तय नही हो पाया है कि , अगर ये प्रयोग दोहा ग़ज़ल के रूप मे आगे भी करना हो तो मात्रा का विन्यास क्या रखा जाये , या इसमे से दोहा शब्द हटा कर केवल मात्रिक बहर ही मान लिया जाये , मै तो अनुसरण करने वाला हूँ , तय तो आप गुणिजनो को करना है , कि इस मंच मे क्या दोहा गज़ल का कोई निश्चित प्रारुप निर्धारित किया जा सकता है , जैसे कि दोहा गीत को मिला हुआ है , अरूज के और जानकार अगर शामिल होके कुछ अंतिम बात कह सकते जो कम से कम इस मंच को स्वीकार्य हो तब बात बनती ।
ऐसे तो सभी अपना अपना अभिमत रख सकते हैं , जो एक ही हों ज़रूरी भी नही है ।
अन्यथा दोहा गज़ल को केवल गज़ल कह के मात्रिक गज़ल -- एलुन फेलुन .... फा मे ही गज़ल कहने की कोशिश करते रहना उचित होगा । ऐसा मुझे लगता है ।
आदरनीय अनुज भाई , आपकी सलाह लगभग वही है जो मेरी सलाह है । दरासल कोई भी नया प्रयोग शुरुवाती दौर मे इन्ही स्थितियों से गुज़र के स्वीकृति पाता है, मै खुद अरूजी नही हूँ, मैं बताये का अनुसरण करने वाला हूँ, तय आप सब अरूजियों को करना है कि , आगे ये प्रयोग ज़ारी रखा जाये कि नही , और अगर जारी रखा भी जाये तो सर्व स्वीकृति स्वरूप क्या हो । चर्चा मे शामिल हो सार्थकता प्रदान करने के लिये आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीय गिरिराज जी,
आदरणीय सौरभ जी के निर्देशानुसार अगर ‘झंझटें’ का वजन गणितीय रूप से ‘211’ लिखें तो भी यह फैलुन (22) के वजन पर ही इस्तेमाल होगा और मिसरे का वज़न ‘फैलुन फैलुन फैलुन फैलुन फैलुन फा’ ही रहेगा और ‘फैलुन फैलुन फैलुन फैलुन फैलुन फा’ को ‘22 22 22 22 22 2’ लिखने में कोई अरूजी लोचा नहीं है. आप द्वारा इस्तेमाल की गई बहर में (112) , (211) और (121) फैलुन (2 2) के वजन में ही होते हैं. ( ११२ के लिए फइलुन और १२१ के लिए फऊल प्रचलित है, लेकिन इस बहर में इनके वजन पर भी फैलुन ही इस्तेमाल किया जाता है)
आदरणीय सौरभ जी द्वारा उल्लिखित ‘बह्रे मुजारे मुसम्मन अखरब - 221 2122 221 2122 और बह्रे रमल मुसम्मन मशकूल -1121 2122 1121 2122’ और आप द्वारा इस्तेमाल की गई बहर में तनिक मोटा अंतर है, वो ये कि इन बहरों में आप(11)और(2)या (121)और (22) को एक दूसरे की जगह इस्तेमाल नहीं कर सकते लेकिन आप द्वारा इस्तेमाल की गई बहर में यह छूट है. अगर ऐसी कोई छूट इन दोनों बहरों में होती तो इन दोनों बहरों में कोई अंतर नहीं होता. वस्तुतः आदरणीय सौरभ जी द्वारा उल्लिखित दोनों बहरों की प्रकृति वर्णिक है (जिसमें ‘मक्षिकास्थाने मक्षिकापात’ मजबूरी होती है. यानि लघु के वजन पर लघु और गुरु के वजन पर गुरु ही आ सकता है ) और आप द्वारा इस्तेमाल की गई बहर की प्रकृति मात्रिक है (जिसमें सामान्यतया एक गुरु(2) और दो लघु(11)एक दूसरे के वजन पर रखे जा सकते हैं). यह बहर वस्तुतः कुछ परिवर्तनों के साथ यह एक मात्रिक छंद ही है. यह ‘मीर की बहर’ या ‘हिंदी बहर’ कही जाने वाली बहर का ही एक परिवर्तित रूप है. यह हिंदुस्तान में बनाया गया हिंदुस्तानी जूता है जिस पर थोड़ी-सी अरबी-फारसी पच्चीकारी है. इसीलिए यह मात्रिक छंदों के पैरों में आराम से आ जाता है.
समझाये की ‘ये’ पर मेरी नजर न पड़ी हो ऐसा नहीं है लेकिन मुझे लगा कि आपने इसे स्वाभाविक उच्चारण को बनाये रखने के लिए जानबूझकर ‘समझाय’ नहीं लिखा होगा या असावधानी से रह गया होगा. वर्ना अपनी समझ पर तो मुझे पूरा शक है लेकिन मुझे नहीं लगता किआपको भी दोहा छंद की ‘विन्यासगत जानकारियाँ’ नहीं होंगी जो सिर्फ 10+2 के स्तर की होती हैं. :))
“कोई ये समझाये अब” को ‘कोई अब समझाये ये’ करने में तानाफुर का भी मसला है लेकिन यहाँ प्रासंगिक बहर पर चर्चा थी काव्य दोष नहीं इसलिए उसका जिक्र नहीं किया था. ऐसी दिक्कतों से निपटने के लिए आप खुद मुझसे ज्यादा सक्षम हैं. ‘भैसें हों चहुँ ओर तो, कहाँ बजाये बीन’ जैसे किसी परिवर्तन से आप इससे आसानी से निपट सकते हैं.
सादर
आदरणीय गिरिराज जी आपकी ग़ज़ल के हवाले से सार्थक चर्चा हो रही हैै जानकारी में वृद्धि हो रही हैै इसलिये आपको पुन: और आदरणीय सौरभ जी को भी धन्यवाद प्रेषित है । सादर ।
आदरणीय गिरिराज भाई, अब तक की चली बहस को अभी देख गया. इस बहस में रोचकता तो है लेकिन तथ्यात्मकता का तनिक अभाव प्रतीत हो रहा है. कारण इसका यह है कि जब ग़ज़ल अपनी सीमाओं को तोड़ कर नयी सीमाओं में प्रवेश करने को आतुर होती है तो मूलभूत नियमावलियों में कोई फेर-बदल न करते हुए, अपने विन्यास में परिवर्तन हुआ देखती है. इसी विन्यास परिवर्तन से ग़ज़ल की पारम्परिक सीमाओं का अतिक्रमण हुआ देखा जाता है.
आपकी ग़ज़ल चूँकि दोहा-ग़ज़ल है जिसका प्रचलन पिछले तीन-चार वर्षों में खूब तेज़ी से बढ़ा है और मान्य केन्द्रों से भी ऐसी ग़ज़लों को लेकर सार्थक प्रयास हुए हैं. ग़ज़लों को विशेष नोमेनक्लेचर के ज़रीये ’गीतिका’ या ’मुक्तिका’ जैसे नाम दे कर छन्दासिक परिपाटियों से साम्य रखते हुए कहने की कोशिश हुई है. मैं ऐसे कई आन्दोलनों को बहुत ही नज़दीक से जानता हूँ, एक हद तक उनके साथ भी रहा हूँ. और, ऐसे प्रयासों को कभी ख़ारिज़ नहीं करता. इसी क्रम में साझा करना अनुचित न होगा, कि सन् २०१३ के सितम्बर माह में जब भारत की ओर से नेपाल की तात्कालीन राष्ट्रीय संस्था अनाममण्डली के बुलावे पर छन्द और ग़ज़ल के ऊपर हुई बहसों के लिए मैं नेपाल गया था, तो मै स्वयं कई अन्य तरीकों से ग़ज़लों पर हो रहे प्रयासों को समझ पाया था. नेपाल में लोकलय, छन्द-लय और फ़ारसी-बहर, यानी तीन तरह के विन्यासों पर ग़ज़लों की परिपाटी से परिचित हुआ. छन्द-लय से उतना आश्चर्य तो नहीं हुआ था क्यों कि रमल, रजज, मुत्कारिब आदि जैसी कई बहरों के विभिन्न विन्यास कई शास्त्रीय छन्दों से साम्य रखते हैं. लेकिन लोकलय के आधार पर ग़ज़लें तब मेरे लिए भी नयी कोशिश के तौर पर मेरे सामने आयी थीं. फिर २०१५ में पुनः इन्हीं संदर्भों में नेपाल जाने का अवसर मिला और पुनः कई तथ्य सामने आये.
कहने का तात्पर्य है, कि फ़ारसी बहरों में अत्यंत प्रचलित ३२ तरीके की बहरों के अलावा यदि अन्य विन्यास अपनाये जायें तो फिर उनके साथ फ़ारसी बहरों के विन्यास से साम्यता का लोभ नहीं पालना चाहिए. अन्यथा, प्रतीत यही होगा कि किसी और पैर में पहले से निर्धारित जूते अटाये जायें. फिट हो गये तो हम खुशकिस्मत हैं, वर्ना हमारा पैर न केवल घवाह (घायल) हो जायेगा, हम हास्यास्पद भी दिखेंगे. अर्थात, हम ऐसे किसी व्यामोह से तुरत निकलें. यानी, या तो हम विभिन्न तरीके की ग़ज़लों पर अभ्यास करें, या ऐसे प्रयोगों से साफ़ हाथ जोड़ लें.
भुजंगप्रयात, हरिगीतिका, गीतिका, विधाता, शक्ति आदि-आदि ऐसे छन्द हैं जो फ़ारसी बहरों से साम्य रखते हैं. जिस तरह से ग़ज़लों में वाचिक परम्परा की छूट ली जाती है, (यथा, वह, यह, तुम, घर आदि जैसे दो लघुओं को इकट्ठे उच्चारित होने पर उन्हें गुरु/ग़ाफ़ मान लेना), वैसी छूट छन्दों में ली जाये तो ग़ज़ल और छन्दों में कोई विशेष अन्तर नहीं है. समस्या तब होती है, जब इनसे इतर ऐसे छन्दों के प्रयोग को लेकर, जोकि फ़ारसी बहरों से किसी तौर पर साम्य नहीं रखते, ग़ज़ल कहने का अभ्यास या प्रयोग होता है. दोहा एक ऐसा ही छन्द है. फिर, इस ’पैर’ में बेमेल का या बना-बनाया ’फ़ारसी जूता’ ज़बरदस्ती क्यों पहनाया जाय ?
इसी क्रम में कह दूँ, कि आदरणीय अनुज जी उत्साह में एक गुरु और दो लघु के अंतर को भूल गये हैं. ’झंझटें’ में यदि ’टें’ की मात्रा यदि गिरायी भी गयी तो ’झंझटें’ ’झंझट’ जैसा उच्चारित हो कर ग़ाफ़-ग़ाफ़ या २ २ के वज़न का नहीं हो जायेगा. बल्कि २११ होगा. वर्ना, आदरणीय, बह्रे मुजारे मुसम्मन अखरब - 221 2122 221 2122 और बह्रे रमल मुसम्मन मशकूल -1121 2122 1121 2122 में क्या अंतर रह जायेगा ? यह तनिक महीन अंतर है लेकिन इसके प्रति आँखें खुली रखनी होगी.
इस जगह मै स्वीकार करता हूँ, कि आपके मिसरे ’कोई ये समझाये अब , कहाँ बजायें बीन’ को मैं उत्साह में मार्क करना भूल गया था. मैं सुझाव देना चाहता था कि समझाये को समझाय किया जाय ताकि दोहा छन्द के विषम चरण का विन्यास संतुष्ट हो सके. और नम्रता से कह रहा हूँ कि संभवतः, आदरणीय अनुज जी के पास दोहा छन्द की सम्यक और विन्यासगत जानकारियाँ नहीं है. यह उनकी टिप्पणी से प्रतीत हो रहा है.
दूसरी बात, विभिन्न छन्दों में बाकमाल ग़ज़लें कही जा रही हैं जो अरुज़ के मूलभूत नियमों को संतुष्ट करते हुए, छान्दसिक विन्यासों पर आधारित ग़ज़लें होती हैं.
सादर
आदरणीय गिरिराज जी, पंक्ति में ग्यारहवी लघु मात्रा के बाद हमेशा एक ऐसा गुरु रखें जिसे गिरा कर पढ़ा जाना मुमकिन हो तो ये समस्या आसानी से हल हो जायेगी आपकी ही एक पंक्ति इसके लिए एक बेहतर उदाहरण है :
फै |
लुन |
फै |
लुन |
फै |
लुन |
फै |
लुन |
फै |
लुन |
फा |
|
2 |
2 |
2 |
2 |
2 |
2 |
2 |
2 |
2 |
2 |
2 |
|
घर |
की |
सा |
री |
झं |
झटें |
हो |
जा |
यें |
गी |
सा |
फ |
साथ ही इस पंक्ति को अगर मात्रिक छंद के हिसाब से देखें तो दोहा छंद की सारी शर्तों को पूरा करती है.
आदरनीय मिथिलेश भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका आभार । आपकी इस प्र्तिक्रिया से चर्चा को कोई दिशा मिलेगी ज़रूर ऐसा लगता है , आ. सौरभ भाई जी भी लगभग यही बात कह रहे हैं , देखिये , क्या तय होता है ।
आदरणीय अनुज भाई , हौसला अफ्ज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया । चर्चा इसी बात पर ज़ारी है कि बह्र की मात्रिकता लिखें कैसे , आपकी सलाह सही है , अगर दोहा गज़ल की मात्रिकता को फेलुन फेलुन मे लिखें , देखिये क्या तय किया जाता है , उसीके अनुसार कुछ परिवर्तन करूँगा । चर्चा मे शामिल होने के लिए आपका आभार ।
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online