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वुसअतें दिल मे समा जायें तो जहाँ अपना
वगरना खून का रिश्ता भी है कहाँ अपना
अहले तक़रीर की आतिश बयानी तुम ले लो
रहे जो सुन के भी ख़ामोश-बेज़ुबाँ, अपना
ये कैसा रास्ता है सिर्फ अँधेरा है जहाँ
कहीं भटका तो नहीं देख कारवाँ अपना
फड़फड़ा कर मेरे पर बोलते यही होंगे
ये ज़मीं सारी तुम्हारी है , आसमाँ अपना
इसे नादानी कहें या कि कहें मक्कारी
समझ रहे हैं दुश्मनों को पासबाँ अपना
नीव वैसे तो है मज़बूत पर यही सच है
बुरी नीयत से देखता है मेहमाँ अपना
एक आँसू भी नहीं रोया किसी तुरबत पर
ये कौन बन के आ गया था नौहा ख़्वाँ अपना
कभी मिल जाये तो बांटेंगे शाद नग़्में भी
अभी तो दर्द ही गायेगा हर बयाँ अपना
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ भाई जी , सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभार ।
आदरणीय मिसरों को अगर आप चिन्हित कर दें तो प्रवाह सुधारने का प्रयास ज़रूर करूँगा । आपका ह्र्दय से आभार ।
आदरणीय हर्ष भाई , हौसला अफज़ाई का शुक्रिया आपका ।
आदरणीय सुशील सरना भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार ।
ग़ज़ल के हर शेर अपनी कहन से दाद पर दाद की हैसियत रखते हैं. लेकिन जाने क्यों मात्रिक बहर की सहज सूरत नहीं बन रही है. कहीं फाइलातुन की सूरत है तो कहीं मुफाईलुन की. कुछ मिसरों का लाम-ग़ाफ़ से शुरु होना और आगे एक-दो ग़ाफ़ का बना रहना, मेरे प्रवाह को बाधित कर रहा हो शायद, आदरणीय गिरिराज भाईजी.
सादर
"कभी मिल जाये तो बांटेंगे शाद नग़्में भी
अभी तो दर्द ही गायेगा हर बयाँ अपना"
बहुत ही बेहतरीन शेर हुआ आदरणीय गिरिराज भंडारी जी ..दिली दाद वसूल पाइयेगा !!
वुसअतें दिल मे समा जायें तो जहाँ अपना
वगरना खून का रिश्ता भी है कहाँ अपना
वाह ये कह के तो अपने भी ''सरेअाम दिल चुरा लिया है यहां अपना ''. इस दिलकश ग़ज़ल के लिए दिल से शेर दर शेर दाद कबूल फरमाएं अादरणीय गिरिराज जी भाई साहिब।
आदरणीय नीरज भाई , हौसला अफज़ाई का तहेदिल से शुक्रिया आपका ।
आदरणीय काली पद भाई , सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार । आपकी रचना देखूँगा तो ज़रूर मेरी समझ की जानकारी साझा करूँगा ।
कभी मिल जाये तो बांटेंगे शाद नग़्में भी
अभी तो दर्द ही गायेगा हर बयाँ अपना
क्या बात है आदरणीय भण्डारी जी ढेरों दाद ग़ज़ल के लिए और इस बेहतरीन शेर के लिए
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