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जयनित भाई, मैं तो मतले से उभरे आते कमाल पर ही मुग्ध हूँ. क्या महीन से महीन होते जा रहे हैं भाई आजकल ! कमाल.. कमाल !
मैं तो आजकल आपसे बड़े गुस्से में चल रहा था. कि आप रचनाओं पर अभ्यास आदि छोड़ कर लोगों को ’रचनाकार’ बनाने की हवाबाज़ी करते हुए हवाई गोते लगाने लगे हैं. .. :-))
लेकिन आपके इस ’जाइये, जाइये..’ ने मेरे भ्रम के पर्दे को तार-तार कर दिया है ! .. ये उमर भइया और ये कमाल ! वाह वाह !.. चश्मेबद्दूर !
जयनित भाई, अभी आपके इस मतले से पार पाऊँ तो ओबीओ के मंच पर आजकल आम होती जा रही बहसों के नये ढंग पर अपनी कुछ बातें सादर निवेदन करूँ. इसमें कोई शक नहीं कि इस क्रम में मंच के वरिष्ठ सदस्यो की निर्लिप्तता या ’अच्छे’ (?) बने रहने का व्यामोह, या हम चाहे इसे जो नाम दें, अब कीमत माँगने लगी है. और इसके लिए सभी तथाकथित वरिष्ठों के साथ-साथ मैं स्वयं को भी दोषी मानता हूँ.
अभी इतना ही, इसके आगे मैं निपट लूँगा या अब निपट जाऊँगा.
सही है, मंच के अबतक के इतिहास में लम्बी-लम्बी बहसें हुई हैं, लेकिन उच्छृंखलता को कभी प्रश्रय नहीं मिला था. और ऐसा कहते हुए कई और पोस्ट और प्रतिक्रियाएँ ध्यान में हैं.
अब चर्चा-परिचर्चा पर बात हो जाये. उस हेतु, भाषा व्याकरण सम्मत बातें, जैसा कि मैं जानता हूँ..
एक मोटा-मोटी नियम जान लें, कि, जिस क्रिया के शब्द का समापन ’या’ से होता है, उसके लिए संज्ञामूलक या वचन परिवर्तन ’ये’ और ’यी’ हुआ करता है. जैसे, आया का आये या आयी. पढ़ाया का पढ़ाये या पढ़ायी, बनाया का बनाये या बनायी. आदि
जिस क्रिया के शब्द का समापन ’आ’ से होता है, उसके लिए ’ए’ और ’ई’ हुआ करता है. जैसे, हुआ का हुए या हुई आदि.
यह आम किस्म का नियम है, सो हम सबको गाँठ बाँध लेना उचित होगा. अब, इस हिसाब से ’गया’ का परिवर्तन ’गये’ ही होगा या आवश्यकतानुसार ’गयी’ होगा. न कि ’गए’ या ’गई’. जैसा कि आपने लिख दिया है, अथवा आमतौर पर लोग घालमेल करते दिखते हैं.
सर्वोपरि, हिन्दी भाषा में यह घालमेल उर्दू के रास्ते से आया है. जहाँ स्वर की मात्रा अपने आप में पूर्ण वर्ण की तरह व्यवहृत होती है. उस हिसाब से ’गए’ और ’गये’ एकही ढंग से व्यवहृत होते हैं. उर्दू के अनुसार ’दे’, ’ले’, ’से’ आदि-आदि में काफ़िया ’ए’ की मात्रा इस लिए होती है कि व्यंजन के क्रमशः द, ल, स के बाद लगा मात्रा का ’वर्ण’ ’ए’ ही कॉमन हुआ करता है. हिन्दी के स्वर की मात्राओं की तरह वह व्यंजन वर्ण का अन्योन्याश्रय भाग नहीं बन जाता.
खैर, मेरे लिए हिन्दी भाषा के अनुसार ही बना रहना उचित है.
भाई केवल प्रसादजी दोनों भाषाओं के बीच के अंतर की इसी महीनी को न जानने के चक्कर में फँस गये प्रतीत हो रहे हैं. और उनको काफ़िया के तौर पर ’ये’ के साथ ’ए’ की मात्रा अतुकांत लग रही है.
इन सब के बीच गुत्थी फँसती है, ’लिया’ से बने ’लिये’ और ’के लिए’ को लेकर. क्यों कि ’लिया’ का ’लिये’ तो समझ में आता है, लेकिन ’इसलिए’ या ’इसके लिए’ में कौन सा होगा ? ’ए’ या ’ये’ ? तो उत्तर है, ’इसलिए’ या ’इसके लिए’ में ’ए’ होगा. क्योंकि यह ’लिए’ क्रिया ’लिया’ से संवर्धित न होकर एक अव्यय है. ’इसलिए’ या ’इसके लिए’ आदि को क्रमशः ’इसलिये’ या ’इसके लिये’ लिखना अशुद्ध है.
विश्वास है, इस व्याकरण सम्मत ’मोटा-मोटी’ नियम से तथ्यगत विन्दु सहज हुए होंगे.
भाई, मैं तो इतना ही जानता हूँ.
बाकी रही बातें पोस्ट पर की चर्चा-परिचर्चा की, तो यह उचित ही है कि यह मंच मत-मंतव्यों से सतत समृद्ध होता रहे.
किन्तु, भाई केवल प्रसाद जी, आजकल आप किन लोगों के बीच उठने-बैठने लगे हैं ? आपतो ऐसे न थे, भाईजी ? ’रद्दी’, या ’अफ़सोस’ आदि जैसे शब्दों का ऐसा विपुल प्रयोग ? मज़रा क्या है, भाईजी ? तथ्यगत और तर्कपूर्ण रहेंगे तो हम समरस माहौल में भी अपनी बातें कह सकते हैं. वर्ना, आधी-अधूरी जानकारी और उस पर से कथ्य में संप्रेषणीयता का परिलक्षित दोष ! भाई, बड़ा भारी उलझाव पैदा करता है ! जहाँ तक आदरणीय एहतराम साहब की बात है, तो शायद आप उनके नये-नये ’एकलव्य’ हुए हैं. लेकिन, इतना तो आप तय मानें भाईजी, कि वे भी समझाने-सिखाने में ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं करते. जबकि गलत को गलत कहने में वे कोई कोताही नहीं करते. भाईजी, फिर से कहूँगा, आप तो ऐसे वाकई न थे !
शुभ-शुभ
आदरनीय केवल भाई --1- लगता है आप ओ बी ओ मे नये नये आये हैं , यहाँ पर कोई भी किसी का गुरू नही है , हर कोई हर किसी से सीख भी रहा है और जितना जानता है सिखा भी रहा है । प्रयास कोई विधा विशेष मे कर रहा हो ये बात अलग है , पर गुरू की हैसियत से यहाँ किसी को भी मैने व्यवहार करते नही देखा । और गलती की संभावना हमेशा हर किसी से हर समय होती है , कोई पूर्न नही होता । आप हो गये हों तो अलग बात । मुझे आपके अफसोस पर अफसोस है ।
2- मै अब भी कह रहा हूँ कि काफिया मे गलती मुझे नही लगती -- मै किसी और जानकार का इंतिज़ार करना चाहूँगा । क्यों कि मैने ए को ये भी लिखते देखा है , जिस पर किसी ने उँगली नही उठाई । जैसे गई को कुछ लोग गयी लिखते हैं ।
आ० भण्डारी भाई जी, आप लोग तो गज़ल के गुरु हैं.....मुझे बड़ा अफसोस है..कि यह कमी आपको क्यो नहीं दिखाई दी? काफिये में...ले, दे, ते और ड़े के साथ ए बिलकुल नही चलता और विस्तार से.....द+ए=दे, ल+ए=ले, ड़+ए= ड़े और ....+ए= ए ? यदि आप इसे ग+ए= गे मान रहे है तो (गए ) दोषपूर्ण काफिया है. सादर
आ० जयनित भाई और महेंद्र भाई जी, आप दोनों को ही प्रणाम! आप दोनों ही एक बेहतर गज़लकार हैं. आप लोगों को इस बात से इत्तेफाक नही रखना चाहिये कि शेर अच्छा बन पड़ा है बल्कि बह्र के साथ ही साथ काफिये व रदीफ से गज़ल दुरुस्त होना चाहिये. आप आ० एहतराम इस्लाम सर व आ० वीनस भाई की गजलें देखे और आगे बढें...क्योकि यहां गजलकार बहुतेरे हैं. अच्छे ढूढ़्ने से मिलते हैं... मेरी बात को अन्यथा मत लेंं. आपको बहुत आगे जाना है. ढेरों शुभकामनाएं. सादर
आ० जयनि त कुमार जी ---जाईये जाईये-------------- बड़े आये !
शानदार प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई
आदरणीय जयनित भाई , गज़ल अच्छी हुई है , हार्दिक बधाई आपको । मेरे ख्याल से भी उस शे र मे काफिया दोष नही है । आ. केवल भाई जी से ज़िम्मे दारी पूर्ण प्रतिक्रिया की अपेक्षा करते हैं हम सब , उनको बताना चाहिये कि काफिया दोषपूर्ण कैसे है , ताकि अगर कुछ गलती हो तो हम सब को उनके ज्ञान लाभ मिल सकें ।
ग़ज़ल में दोष होना अलग बात है उसकी पसन्दगी–नापसन्दगी अलग चीज। यदि आदरणीय केवल प्रसाद जी (या किसी अन्य) को वो (या कोई अन्य) शेर रद्दी लग रहा है तो होगा किन्तु मुझे वह शेर बढ़िया लगा। सादरǃ
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