मैदान के किनारे सड़क के पार टपरी के बाहर वह माथे पर शिकन लिये बेचैन -सा बैठा है।अंदर बच्चा पिछले कई घंटों से रोये जा रहा था। पिछले कई दिनों से उसे बुखार है। सरकारी दवाई बेअसर थी। सामने पूरे मैदान में शामियाना लगा हुआ है। बैंड-बाजे की आवाज शोर बनकर कान को फाड़ने पर तुली हुई थी।
उसके घर में आज समस्त फसाद की जड़ ये बैंड-बाजा ही थी। पकवानों की सुगंध अमीर -गरीब का घर कहाँ देखती , बिना पूछे सीधे अंदर घुस आई।
पकवानों की सुगंध से मचलता खाने को तरसता बीमार बच्चा ,अब उसे कैसे समझाये? अजीब- सी विवशता ने घेर लिया था।असहाय पितृत्व , स्वयं के नपुंसक होने के बोध से वह घिर उठा।
"बापूss !" बच्चे की आवाज फिर से सीने को बेध गया। मीठी-सी ठुमकती आवाज आज कांटे बन ह्रदय को बींध रही थी।
" चुप कराओ इसे , अमीरों की गिद्ध -भोज में सेंध लगाना आसान नहीं है।इनके आगे जाने की हिम्मत जूटानी पड़ेगी।" बेमन से वह उठा और शामियाने की तरफ बढ़ गया।किसी तरह सबकी नजरे बचाता हुआ अन्दर प्रवेश कर गया। यहाँ से वहाँ दूर तक टेबलों पर सजे पकवानों पर नजर गई। एकटक निहारता रहा। "कितना सारा खाना ! "गुलाबी साफा लगाये एक बुजूर्ग को अपनी ओर देखते हुए देख वह अंदर से सहम उठा।
" अरे , यहाँ खड़े हो , सामने पड़ा जूठा दिखाई नहीं देता है ? मुँह ताकने के लिये तुमलोगों को नहीं रखा गया है"
उसकी नजर सामने लावारिश-सी पडी जूठे प्लेट पर पडी। पूरी थाली भरी हुई किसी ने जूठे में छोड़ दी थी।
" जी साहब , अभी उठाता हूूँ "वह लपक कर प्लेट उठा ,शामियाने के उस हिस्से में गया जहाँ लोगों की नजर ना पड़े।
बल्ली के किनारे कनात को एक हाथ से फाड़ते हुए वह झटके से निकल ,सबकी नजरों से बचते - बचाते तेज कदमों से अपनी टपरी में पहुँच गया। आँखों में चमक ऐसी मानो युद्ध जीत कर लौटा हो।
बेटा पिता के हाथ में पकवानों की थाली देख चिहुंक उठा, कि तभी उसकी दृष्टि टपरी के अंदर उसके पीछे आती टेंट वालों की जमात पर पड़ी। साथ में गुलाबी साफे वाला भी था।
" वह देखिये , प्लेट चुरा कर भागा है "
चुभता-सा आरोप , सुनते ही वह काँप उठा।
"यह जूठा मैं फेंक नहीं पाया साहब , मेरे बीमार बेटे को पकवान खाने की चाह थी।" घबराई-सी आवाज में मात्र इतना ही कह पाया।
गुलाबी साफे वाले की निगाहें लड़के पर जाकर टिक गयी। बच्चे की सहमी याचना भरी नज़रें , वह आत्मग्लानी से भर उठा। शर्म से उसकी नज़र नीचे झुक गई। "चोर तुम नहीं मैं हूँ " कहकर बाहर निकल गया।
मौलिक और अप्रकाशित
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बहुत बढ़ीया आदरणीय कांता रॉय जी । लघुकथा पढ़ते समय लगा कि ये आम रूटीन सी लघुकथा हाेगी जिसमें गरीब को जूठा खाना उठाने के आराेप में मारा पिटा जाएगा आैर खाना फैंक दिया जाएगा, परन्तु जिस साकारात्मकता से आपने लघुकथा का अंत किया है वह सराहनीय है। सावधानीपूर्वक किए गए शब्द-चयन से पाठक जैसे जैसे कथा पठन करता है उसकी जिज्ञासा भी बढ़ती जाती है। उपमायुक्त भाषा 'आइसिंग ऑन द केक' का कार्य कर रही है। कथा का शीर्षक चयन और बेहतर हो सकता था। समग्रत; एक सफल व प्रभावशाली लघुकथा प्रेषण हेतु आपको असीम शुभकामनाएं निवेदित हैं। सादर
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