अंदाज कातिलों के बेहतरीन बहुत हैं ।
कुछ शख्स इस शहर में नामचीन बहुत हैं ।।
वो खैर मांगते रहे बुरहान की सदा।
उसकी दुआ में पेश हाज़रीन बहुत हैं ।।
आज़ाद मीडिया है अदावत का तर्जुमा ।
गुमराह हर खबर पे नाज़रीन बहुत हैं ।।
जब भी जला वतन तो जश्ने रात आ गयी ।
दैरो हरम के पास मजहबीन बहुत हैं ।।
मिटते हैं वही मुल्क बड़े जोर- शोर से ।
बैठे जहाँ घरों में फिदाईन बहुत हैं ।।
मेरी बलूच आसुओं पे जब नज़र गई ।
वो हुक्मरान देखिए गमगीन बहुत हैं ।।
अब हाल आस्तीन का न पूछिए जनाब ।
जिन्दा तमाम सांप क़ाईदीन बहुत हैं ।।
- नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित ग़ज़ल
Comment
वाह्ह बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है आद० नवीन मणि जी बहुत बहुत बधाई
वाह ! बहुत खूबसूरत गजल कही है आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी. बहुत-बहुत मुबारकबाद क़ुबूल करें. सादर.
खूबसूरत ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई
बेहतरीन नवीन भाई . क़ाईदीन का अर्थ भी बताएं . सादर .
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online