मृत्यु फिर जीत गयी .......
लम्हे यादों के
बढ़ती शब् के साथ
पिघलते रहे
मेरे अहसास
लफ़्ज़ों के पैरहन में
गूंगे बन
सिरहाने रखीं किताब में
पिघलते रहे
दीवारों पर
छाई शून्यता की काई में
ये नज़रें
किसी के बहते लावे के साथ
पिघलती रही
मैं और तुम
का अस्तित्व
पिघलकर
एक हुआ
ज़िस्म केज़िंदाँ में
अनबोले लम्स
पिघलते रहे
ज़िस्म मिटे
साये मिटे
अपने मिटे
पराये मिटे
लपटें उठी
फलक झुका
आरम्भ का
इक अंत हुआ
खामोश
हर इक पंथ हुआ
एक दीप
जलता रहा
एक अंत
चलता रहा
मृत्यु
फिर जीत गयी
कहकहा
पिघलता रहा
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
वाह बड़ी ही खूबसूरती से अहसासों को शब्दरूपी मोतियों में ढाला है
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