2122 2122 2122 212
तुम पिया आये नहीं बरसात बैरन आ गई
दिन गुजारा बेबसी में रात बैरन आ गई
था हवाओं ने कहा मनमीत का सन्देश है
ले जुदाई बेशरम की बात बैरन आ गई
ढोल ताशे बज उठे हैं गूंजती शहनाइयाँ
हाय रे महबूब की बारात बैरन आ गई
मुट्ठियों में दिल समेटा होंठ भी भींचे खड़े
आँसुओं की आँख से सौगात बैरन आ गई
भाइचारा भूल जाओ अब मियाँ तकरीर में
धर्म मजहब आदमी की जात बैरन आ गई
लुट गया है घर घरौंदा बाढ़ में अरमां बहे
फिर मदद के नाम पे खैरात बैरन आ गई
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
हार्दिक अभिनंदन एवं आभार आदरणिया Alka Changa जी
आपके आशीर्वाद से रचना सफल हुई आदरणीय ram shiromani pathak जी
ह्रदयतल से आभार आदरणीय सुरेश कुमार 'कल्याण' जी
सुंदर शब्दों में सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणिया Abha saxena जी प्रणाम करता हूँ
प्रणाम है आदरणीय Samar kabeer जी यूँ ही ग़लतियों को सुधरते रहिए
रचना पटल पे आपका हार्दिक अभिनंदन एवं आभार आदरणीय सुनील प्रसाद(शाहाबादी) जी
बहुत सुंदर ग़ज़ल।हार्दिक बधाई
ब्रजेश कुमार जी वाह बहुत उम्दा ग़ज़ल बधाई ...स्वीकार करें ..
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