पुरानी किताबें ........
पुरानी किताबें
कुछ भी तो नहीं
सिवाय पुरानी कब्रों के
जिनमें दफ़्न हैं
चंद सूखे गुलाब
कुछ सिसकते हुए
मुहब्बत के ख़ुश्क से हर्फ़
कुछ पुराने पीले
टुकड़े टुकड़े से
अधूरे प्रेम के
प्रेम पत्र
पुरानी किताबें
जिनमें सो गयी
जीने की आस लिए
कई आकांक्षाएं
घुटी हुई सांसें
मोटी सी ज़िल्द की
अलमारी में
कैदियों से जीते
मौन कई अफ़साने
जंज़ीरों में जकड़े
इश्क और मुहब्बत के
बीते हुए ज़माने
पुरानी किताबें
कैद हैं जिनमें
चेहरे की झुर्रियों में
जीवन समेटे
बज़ुर्गों के
कुछ धुंधले से चेहरे
जिनकी नसीहतें
उनके साथ
पन्नों में
सो गयी
पुरानी किताबें
फ्रेम में जड़े
ज़िस्मों की तरह
खामोश यादों के सिवा
शायद
कुछ भी नहीं
पन्नों में सिमटे
बीते पल
बस
बीते कल के सिवा
कुछ भी नहीं
पुरानी ही सही
मगर कैसे कह दें
इन किताबों में
कुछ भी नहीं
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आदरणीया कल्पना भट्ट जी प्रस्तुति के भावों को अपने जिस आत्मीयता से अलंकृत किया है उसके लिए आपका हार्दिक हार्दिक आभार।
पुरानी किताबें
फ्रेम में जड़े
ज़िस्मों की तरह
खामोश यादों के सिवा
शायद
कुछ भी नहीं
पन्नों में सिमटे
बीते पल
बस
बीते कल के सिवा
कुछ भी नहीं
पुरानी ही सही
मगर कैसे कह दें
इन किताबों में
कुछ भी नहीं|
बहुत ही लाजवाब रचना हुई है आदरणीय सुशिल सर जी | हार्दिक बधाई | आपकी हर कविता एक अलग अंदाज़ की होती है | नमन आपको |
आदरणीय डॉ. गोपाल जी भाई साहिब आप जैसे गुणीजनों से प्रशंसा पाकर रचना गर्व महसूस कर रही है। आपका तहे दिल से शुक्रिया।
आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले जी प्रस्तुति को अपने स्नेहिल और आत्मीय शब्दों से अलंकृत कर मान बढाने का तहे दिल से शुक्रिया। आदरणीय बिलकुल सही सर मैं जल्दी में बार बार हुई को हुए पढता जा रहा था और आदरणीय समर कबीर साहिब ने उसे बीती हुई जमाने कह कर इंगित किया और मैंने जब उसे पुनः पढा तो उसमें बीते लिखा हुआ था .... मैंने हुई को नहीं पढ़ा इसलिए मैंने कहा कि वो पंक्ति ठीक है। ... खैर इस टंकण त्रुटि को अभी एडिट कर रचना को दुरुस्त कर देता हूँ। आपका और समर कबीर साहिब का मैं दिल से आभारी हूँ।
पुरानी ही सही
मगर कैसे कह दें
इन किताबों में
कुछ भी नहीं-----------------वाह वाह सरना जी . अच्छा रूपक बांधा है . सादर .
आदरणीय सुशील सरना साहब सादर नमस्कार, पुरानी किताबों को आधार बनाकर सुंदर रचना की है आपने. बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें. कैदियों से जीते .....यह पंक्ति तो सही लग रही है. किन्तु 'बीते हुई जमाने' पर आदरणीय समर कबीर साहब का सुझाव सही है. सादर.
आदरणीय समर कबीर साहिब मेरी हर प्रस्तुति आपकी आहटों का इंतज़ार करती है। प्रस्तुति के भावों पर आपकी गहन दृष्टि अपनी छैनी से और भी उन्नत कर देती है। आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से आभार। आपके द्वारा इंगित पंक्तियों में सुधार के बारे में
अलमारी में
कैदियों से जीते (इसमें जीते से अभिप्राय जीना है ) इसलिए इसमें परिवर्तन की आवश्यकता नहीं लगती।
मौन कई अफ़साने
और
''बीते हुई ज़माने'' ये पंक्ति तो सही है।
आपकी पैनी समीक्षा एवम सुझाव का तहे दिल से शुक्रिया।
आदरणीय सुरेश कुमार 'कल्याण' jee ... प्रस्तुति के भावों को पने मनोहारी शब्दों से अलंकृत करने का तहे दिल से शुक्रिया।
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