रग्घू के यहाँ तेरहवीं का भोज खाने के बाद गांव के कुछ बुजुर्ग वहीँ दरवाजे पर बने कउड़ा पर हाथ सेंकने बैठ गए| जाड़े का दिन था और ठंढ भी कुछ ज्यादा थी| कुछ लोग खाने के बारे में बात करने लगे, किसी को अच्छा लगा था तो किसी को साधारण| जोखू चच्चा को हमेशा से ये ब्रम्ह भोज खराब लगता था और उन्होंने कई बार इसके विरोध में बोला भी था लेकिन किसी ने उसपर ध्यान नहीँ दिया| रग्घू की माली हालात अच्छी नहीँ थी, उसपर पिता की बिमारी ने उसे और कंगाल कर दिया था| अब ये भोज का खर्च, आज जोखू चच्चा ने सोच लिया कि बात उठायी जाए|
"आप लोग क्या कहते हैं, रग्घू के ऊपर इस भोज का बोझ गलत नहीँ हो गया", उन्होंने बात को शुरू करते हुए कहा|
"हाँ, भार तो कुछ ज्यादा हो गया बेचारे पर", कुछ लोगों की आवाज़ थी|
"लेकिन फिर भी उसने इंतज़ाम ठीक ही किया था, उसके पिता की आत्मा को शांति मिली होगी", किसी और की आवाज़ थी|
"लेकिन क्या ये जरुरी है कि ब्रम्ह भोज हो, क्या इसे बंद नहीँ किया जा सकता", जोखू चच्चा ने जोर देकर कहा|
वहां सन्नाटा छा गया, लोग ये मानने के लिए तैयार ही नहीँ थे कि इसे बंद किया जाना चाहिए|
"लेकिन ये तो सदियों से होता आया है, और पुरखों की आत्मा की शांति के लिए जरुरी भी है", किसी ने कहा तो उसके समर्थन में कई आवाज़ें उठ गयीं|
"मेरे विचार से ये बंद ही होना चाहिए, कितना अनावश्यक बोझ पड़ जाता है लोगों पर", जोखू चच्चा ने हार नहीँ मानी| एकबार फिर सन्नाटा छा गया|
तभी नंदू ने थोड़े तेज स्वर में कहा "देखिये ये हमारे रीत रिवाज हैं, जिनको ख़त्म नहीँ किया जा सकता| वैसे जोखू चच्चा की माँ का आखिरी समय आ गया है, इसीलिए ये इतना छटपटा रहे हैं", और उठ कर चल दिया|
कई और लोग भी जोखू चच्चा को सकते की हालात में छोड़कर चल दिए| कउड़ा भी कुछ मद्धम पड़ गया था और रग्घू के दरवाजे पर कुत्ते फेंके हुए पत्तल के बचे हुए खाने के लिए आपस में लड़ रहे थे|
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार आ नीता कसार जी. जो भी इन परम्पराओं के विरोध में आगे आता है, उसके ऊपर ही व्यक्तिगत आक्षेप शुरू हो जाता है
बहुत बहुत आभार आ सुरेश कुमार कल्याण जी
बहुत बहुत आभार आदरणीय समर कबीर साहब
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