भीतर पुराने धूल-सने मकबरे में
धुआँते, भूलभुलियों-से कमरे
अनुभूत भीषण एकान्त
विद्रोही भाव
जब सूझ नहीं कुछ पड़ता है
कुछ है जो घूमघाम कर बार-बार
नव-आविष्कृत बहाने लिए
अमुक स्थिति को ठेल कर
वहीं का वहीं लौटा लाता है
मकबरे के कमरों में गूँजती
गहन वेदना की पुकार
हज़ारों चिन्ताओं की
नपुंसक इच्छाओं की
पीड़ा के लौटते हुए पैरों की पदचाप
नाखुनों में अब दर्दीली हुई मान्यताओं के
भुरते पलस्तरों की मिट्टी
उन सुनसान दीवारों को नाखुनों से नोच-नोच
कुछ मिला ? .. क्या मिला ?
मकबरा खड़ा शिलामूर्ति
निज के बाहर कोलतारी हवाएँ
भीतर विवश-वेदना, निराशा, द्वंद्व की साँय-साँय
कमरॊं के नीचे मकबरे के भीतरी तहखानों में
ख्यालों की कोई काली सुरंग हर बार
वहीं का वहीं छोड़ जाती है जहाँ
अनदेखे अनजाने अप्रतिहत
ज़िन्दगी से ऊब कर कितनी सच्चाइयाँ
जीने का एक बहुत बड़ा झूठ बन जाती हैं
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
//बहुत ही दार्शनिक परन्तु जीवन के चढ़ाव के यथार्थ की गहरी सच्चाईयों को समेटे बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति //
इन शब्दों से मान देने के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय विजय जी।
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