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दर्द से आज तक हो नावाकिफ,
यार! तुम से न शायरी होगीI
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(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आपकी मुक्तकंठ प्रशंसा हेतु दिल से आपका शुक्रिया अदा करता हूँ आ० सुरेन्द्र नाथ सिंह कुशक्षत्रप जीI
दिल से आपका शुक्रिया अदा करता हूँ आ० रवि शुक्ला भाई जी, आपकी सराहना किसी पुरुस्कार से कम नहींI
हार्दिक आभार आ० प्रमोद श्रीवास्तव जी.
गज़ल पसंद करने हेतु आपका हार्दिक आभार आ० सीमा सिंह जीI
मेरे पीर-ओ-मुरशिद, मैंने कतई आपके कहे को गलत ठहराने की हिमाकत नहीं की हैI वैसे बाबा तुलसीदास जी कहन के बाद मेरे लिए बात एकदम शीशे की तरह साफ़ थीI मैंने सिर्फ कारीन के आगे फकत अपना पक्ष रखने की कोशिश की हैI वैसे पंजाब में भी पतंग को गुड्डी ही कहा जाता हैI
परम आदरणीय समर कबीर साहिब, हिंदी में पतंग को स्त्रीलिंग के तौर पर लेना बिलकुल जायज़ हैI. इसके हक में हालाकि इस हक़ीर के पास दलाइल का अम्बर मौजूद है, लेकिन मैं चंद मिसालों में अपनी बात मुकम्मिल करूँगा.
'रामचरितमानस' में महाकवि तुलसीदास ने ऐसे प्रसंगों का उल्लेख किया है, जब भगवान् श्रीराम ने अपने भाइयों के साथ पतंग उड़ाई थी। इस संदर्भ में 'बालकांड' में उल्लेख मिलता है-
'राम इक दिन चंग उड़ाई।
इंद्रलोक में पहुँची जाई॥' (चंग=पतंग)
'तिन तब सुनत तुरंत ही, दीन्ही छोड़ पतंग।
खेंच लइ प्रभु बेग ही, खेलत बालक संग।'
इसके इलावा ऐसे बहुत से लोकप्रिय गीत भी हैं जहाँ पतंग को स्त्रीलिंग की तरह लिया गया है:
-'न कोई उमंग है, न कोई तरंग है, मेरी ज़िंदगी है क्या, एक कटी पतंग है - कटी पतंग
-'अरी छोड़ दे सजनिया छोड़ दे पतंग मेरी छोड़ दे' – (नागिन 1954)
-'चली-चली रे पतंग मेरी चली रे' – (भाभी 1957)
-तेरी-मेरी नज़र की डोरी, लड़ी जो चोरी-चोरी…. तो दिल की पतंग कट गई….
उर्दू शायरी में पतंग को पुल्लिंग की तरह उपयोग किया जाता है, लेकिन वहां भी पतंग को धड़ल्ले से स्त्रीलिंग माना और बरता गया है, इस सिलसिले में चंद फुटकर अशआर भी मुलाहिजा फरमाएँ:
नफ़रत के साथ प्यार की मीठी तरंग है
माँझा है काट-दार रंगीली पतंग है (काजी हसन रज़ा)
पतंग टूट के आँगन के पेड़ में उलझी
शरीर बच्चों की यलग़ार मेरे घर पहुँची (सिब्त अली सबा)
माँझा कोई यक़ीन के क़ाबिल नहीं रहा
तन्हाइयों के पेड़ से अटकी पतंग हूँ (सूर्यभानु गुप्त)
जश्न-ए-मुरव्वत में लोगों की ऊँची उड़ी पतंग
मर्ग-ए-मुरव्वत में उन सब का 'अनवर' रोया नाम (अनवर सदीद)
जब तक है डोर हाथ में तब तक का खेल है
देखी तो होंगी तुम ने पतंगें कटी हुई (मुनव्वर राणा)
हर पाँव से उलझा हूँ कटी डोर के मानिंद
'तारिक़' मिरी क़िस्मत की पतंग जब से कटी है (शमीम तारिक़)
अंत में यह ग़ज़ल आपकी खिदमत में जनाब ज़फर इकबाल साहिब की उर्दू ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ:
तिलिस्म-ए-होश-रुबा में पतंग उड़ती है
किसी अक़ब की हवा में पतंग उड़ती है
चढ़े हैं काटने वालों पे लूटने वाले
इसी हुजूम-ए-बला मैं पतंग उड़ती है
पतंग उड़ाने से क्या मनअ कर सके ज़ाहिद
कि उस की अपनी अबा में पतंग उड़ती है
ये आप कटती है या काटती है दूसरी को
बस एक बीम-ओ-रजा में पतंग उड़ती है
कहीं छतों पे बपा है बसंत का त्यौहार
कहीं पे तंगी-ए-जा में पतंग उड़ती है
कहीं फ़लक पे सरकती है सरसराती हुई
कहीं दिलों की फ़ज़ा में पतंग उड़ती है
खुला है इस पे कुछ ऐसे बहार का मौसम
है रुख़ पे रंग क़बा में पतंग उड़ती है
ये ख़्वाब है कि उलझता है और ख़्वाबों से
ये चाँद है कि ख़ला में पतंग उड़ती है
उमीद-ए-वस्ल में सो जाएँ हम कभी जो 'ज़फ़र'
तो अपनी ख़्वाब-सरा में पतंग उड़ती है
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