तुम क्या हो?
किसी समुद्री मछली के उदर में
किसी ब्रह्मचारी के पथभ्रष्ट शुक्राणु का अंश मात्र
किन्तु उसका निषेचन?
अभी बहुत समय बाकी है उसमे
बहुत.....
हे प्रिये!
बुरा नहीं स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझना
अमरत्व का दिवा-स्वप्न भी बुरा नहीं
किन्तु समझना आवश्यक है
यह जान लेना आवश्यक है कि
अमर होने ने लिए मरण आवश्यक है
मरण हेतु जन्म अति आवश्यक
फिर तुम्हें तो अभी जन्म लेना है
जन्म लेने से पूर्व ही
अमरत्व की स्वयम्भू उपाधि?
क्या अपमान नहीं उस ब्रह्मचारी का?
जिसकी भुजाओं में विराजमान है परशुराम
जिसकी जिव्हा पर सुरसति का दूसरा घर है
स्वयं बृहस्पति जिसके आज्ञा चक्र में हैंI
बस इतना स्मरण रहे
आत्मविश्वास की सीमा का अतिक्रमण
अति घातक और विनाशक होता है
क्योंकि
न तो कभी केंचुए ही तक्षक बन पाए
न ही छिपकली के बच्चे मगरI
.
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज भाई जी।एक बेहद चुस्त, दुरुस्त और बहु आयामी अतुकांत कविता। कितना कुछ कह दिया आपने अपनी इस अनुपम प्रस्तुति में।पुनः आभार।
बस इतना स्मरण रहे
आत्मविश्वास की सीमा का अतिक्रमण
अति घातक और विनाशक होता है
क्योंकि
न तो कभी केंचुए ही तक्षक बन पाए
न ही छिपकली के बच्चे मगरI
...... बहुत सुंदर आदरणीय योगराज सर .... एक विचार बिंदु का इतना सूक्ष्म विश्लेषण ... शब्दों के प्रहार से भाव की गहनता को उसकी चरम सीमा तक अपने सुंदर प्रवाह से एक सारगर्भित अंत देना ये आपकी ही सशक्त लेखनी कर सकती है। इस सार्थक प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय।
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