मेरी तालीम का मुझ पर असर है,
जो तेरे सामने झुकती नज़र है ।
बिना गलती के माँगूं मैं मुआफ़ी,
यही रिश्ते निभाने का हुनर है ।
के जब इंसान पत्थर भी जो मारे,
उसे बदले में फल देता शज़र है ।
हर इक चेहरे पे नक़ली मुस्कुराहट,
बड़े फनकार लोगों का शहर है ।
अमीरी में भी कितने ग़म है तुमको,
किसी की बददुआओं का कहर हैं ।
के पूरी हो ही जाती हर तमन्ना,
मेरे अल्लाह की मुझ पर मेहर है ।
मुझे मंज़िल मिलेगी एक न एक दिन,
इसी उम्मीद में कटता सफ़र है ।
बड़ा शायर बना फिरता है देखो,
वही "अम्बेश" जो अब दरबदर है ।
::::
अम्बेश तिवारी "अम्बेश"
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
वाह्ह्ह्हह वाह्ह्ह्ह बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल कही है जनाब अम्बेश जी
बिना गलती के माँगूं मैं मुआफ़ी,
यही रिश्ते निभाने का हुनर है ।
के जब इंसान पत्थर भी जो मारे,
उसे बदले में फल देता शज़र है ।-----शानदार शेर
दिल से बधाई लीजिये
आदरणीय, आप उर्दू लिहाज़ के ग़ज़लकार हैं तो उर्दू के लफ़्ज़ों का उसी अनुरूप प्रयोग करें. और, अनावश्यक कि या के का प्रयोग करना कमज़ोर विन्यास की निशानी है. लघु मात्रिकता को निभाने का यह बड़ा ही ग़लत चलन है. इससे बचना श्रेयस्कर होगा.
बाकी, आपका प्रयास रुचिकर लगा है. कहन में तनिक और गठन और सोच का होना उचित होगा.
शुभेच्छाएँ
आदरणीय अम्बेश भाई , अच्छी गज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार् कीजिये ।
यहाँ गज़ल के ऊपर बहर लिखने की परम्परा है , अतः बहर लिख दिया कीजिये , सीखने वालों को समझने मे आसानी होती है ।
बाक़ी आ. समर भाई जी की कही बातों से मै भी सहमत हूँ , खयाल कीजियेगा ।
मेरी तालीम का मुझ पर असर है,
जो तेरे सामने झुकती नज़र है ।
बिना गलती के माँगूं मैं मुआफ़ी,
यही रिश्ते निभाने का हुनर है ।
वाह आदरणीय अम्बेश जी क्या खूबसूरत अशआर हैं ... हकीकत बयानी करती इस दिलकश ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई।
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