2122 1122 1122 22
बात सरहद पे अगर अब भी पुरानी होगी
तब दिलों मे हमें दीवार उठानी होगी
हर कहानी में हक़ीकत भी ज़रा होती है
ये हक़ीकत भी किसी रोज़ कहानी होगी
हाथ जिनके भी बग़ावत पे उतर आये हों
पैर में उनके भला कैसे रवानी होगी
सभ्य लोगों में असभ्यों की तरह बात तो कर
ये नई नस्ल है, तेरी भी दिवानी होगी
अपने अजदाद कभी राम-किसन-गौतम थे
देखना घर मे बची कुछ तो निशानी होगी
रंग चांदी सा हुआ जाता है, अब बालों का
तिफ्ल खू सोच तेरी कब ये सयानी होगी
शब –ए- तारीक़ में जो रोज़ चमक उठती है
रोशनी, चांद की फिर बात न मानी होगी
फिर किसी मौत का मजहब वो ले के आये हैं
कल किसी चौक पे फिर ज़हर बयानी होगी
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरनीय समर भाई , गज़ल पर उपस्थिति और सराहना के लिये आपका हृदय से आभार ।
आदरणीय ऐबे तनाफुर है , मै जानता हूँ , स्वीकार करता हूँ पर मुझे हटाने का कोई रास्ता नही मिल रहा था , अतः ऐसे ही रहने दिया हूँ , अगर कोई सही बात सूझी तो ज़रूर सुधार लूँगा , आपका आभार ।
आदरणीय श्याम भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।
आ० अनुज बहुत बेहतरीन गजल कही आपने -
हर कहानी में हक़ीकत भी ज़रा होती है
ये हक़ीकत भी किसी रोज़ कहानी होगी---- सादर
आदरणीय , बेहतरीन ग़ज़ल ...........वाह -वाह ......सादर नमन व हार्दिक बधाई स्वीकार करें|
मोहतरम जनाब गिरिराज साहिब , अच्छी ग़ज़ल हुई है दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ---शेर 8 का ऊला मिसरा एक बार देख लीजिये
इसे यूँ करके देख लीजिये ---" लेके आए हैं किसी मौत का वो फिर मज़हब "
हार्दिक बधाइ स्वीकार करें इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए । सादर । |
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