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आदरणीय समर कबीर साहिब सवैया छंद में आपकी दोनों ही प्रस्तुतियां भाव , शिल्प एवम प्रवाह निर्वाह की दृष्टि से उत्तम बन पड़ी हैं। आपने अपनी कलम से मुझे भी व्यक्तिगत से इस सृजन हेतु उत्साहित किया है। बहरहाल आपको हार्दिक हार्दिक बधाई।
आदरणीय समर साहब, आपने सवैया के मर्म को न केवल समझा है बल्कि उसके विन्यास पर साधिकार कलम चलायी है. (हिन्दी में कलम स्त्रीलिंग ही होता है), वागीश्वरी सवैया यगणात्मक सवैया है. अर्थात, यह भुजंगप्रयात के विन्यास का अनुपालन करता है. आपने इस विधान का बहुत ही क़ायदे से निर्वहन किया है. यह तो हुई विधान की बात.
कथ्य की दृष्टि से भी आपके सवैये सथापित मूल्यों की बात करते दीखते हैं. यह अवश्य है, कि ’यही है ज़माना बताऊँ तुझे क्या, ज़रा भी सलीक़ा नहीं है कहीं ’ में तुझे की ज़गह तुम्हें लिखना उचित होता. जब दोनों का मात्रा-भार लघु-गुरु है तो कोई फ़र्क़ भी नहीं पड़ता. आगे के वाक्यो (पदों) में तुम्हें के अनुसार क्रिया भी सही प्रतीत होती - बड़ों ने बताया जिसे ढूंढते हो, भरोसा यहीं है मिलेगा यहीं
यह अवश्य है कि ’कभी भी’ कहना गद्य में चलता है. लेकिन पद्य में धीरे-धीरे लोग मना कर रहे हैं. क्यों कि कभी = कब+ही होता है. एक ही साथ ही और भी का प्रयोग उचित नहीं है. ग़ज़लों में इसे कत्तई अनुमोदित नहीं करते. तो इससे यहाँ भी बचना था.
लेकिन आपने जिस उत्साह और लगन से रचनाकर्म किया है वह अभिभूत कर रहा है. आपने छन्दों पर कलम चला कर अन्य रचनाकर्मियों केलिए उदाहरण प्रस्तुत किया है आदरणीय, कि छन्द कोई हौआ नहीं है. कि इन पर आज काम नहीं किया जा सकता. समस्या कुछ अगर है तो रचनाकारों के मेहनत से बचने की है. मै इन दोनों छन्दों पर आपको बार-बार बधाइयाँ दे रहा हूँ. तथा, आगे अन्य छन्दों पर भी इसी तरह अभ्यास् करने के प्रति आह्वान कर रहा हूँ
सादर
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