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सवैये - प्रथम प्रयास

वागीश्वरी सवैया सूत्र : यगण X 7 + ल गा

(1)
कहीं भी कभी भी यहाँ भी वहाँ भी, किसी को किसी का भरोसा नहीं |
यही है ज़माना बताऊँ तुझे क्या, ज़रा भी सलीक़ा नहीं है कहीं |
इसी के लिये तो हमारी वफ़ा ने, जहां में कई यातनाएं सहीं |
बड़ों ने बताया जिसे ढूंढते हो, भरोसा यहीं है मिलेगा यहीं ||

(2)
भलाई हमें तो दिखी है इसी में, कभी भी दुखों में न आहें भरें |
हमारे लिये तो यही है ज़रूरी, यहाँ कर्म अच्छे हमेशा करें |
हमें ये सिखाया गया है कि भाई, हदों को न तोड़ें ख़ुदा से डरें |
किसी हाल में भी न भूलें कभी ये, भले ही जहाँ में जियें या मरें ||

--समर कबीर
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Samar kabeer on November 3, 2016 at 11:39pm
जनाब रामबली गुप्ता जी आदाब,आपको मेरा प्रयास पसंद आया,मेरा लिखना सार्थक हुवा ।
सवैये लिखने की प्रेरणा मुझे आप से ही मिली है और टेलिफ़ोनिक चर्चा और व्हाट्स एप के ज़रिये इसे सीखने में जो आपने मदद की है उसके लिये मैं आपका दिल से आभारी हूँ ।आपका स्नेह मेरा हौसला बड़ा रहा है,रचना की सराहना और दाद-ओ-तहसीन के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ ।
Comment by Samar kabeer on November 3, 2016 at 11:32pm
जनाब सौरभ पांडे जी आदाब,आपने मेरे प्रयास को सराहा इसके लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ । मेरे लिये सबसे अहम चीज़ थी विधान,और आपके बताये अनुसार मेरे सवैये विधान के अंतर्गत हैं,ये जानकर मुझे ख़ुशी हुई और इत्मीनान हासिल हुवा । अब रही बात "कभी भी" शब्द की जिसके लिये आपने फ़रमाया है :-

//लेकिन पद्य में धीरे-धीरे लोग मना कर रहे हैं//

यानी ये शब्द अभी पूरी तरह मतरूक नहीं हुवा है और कुछ लोगों की सहमति इस पर है,मैं इस शब्द पर कोई बहस नहीं करना चाहूँगा ।अब रही 'तुझे' की जगह "तुम्हें" करने की बात ,तो यहाँ पर मैंने इसलिये "तुम्हे" नहीं लिखा क्यूँकि अर्ध्वर्ण की वजह से मैं दुविधा में था कि इसकी वजह से कहीं मात्रा इधर उधर न जो जाये और मैं विधान के ख़िलाफ़ न लिख दूँ इसलिये 'तुम्हें की जगह "तुझे" लिखा ।
आपकी दुआऐं शामिल-ए-हाल हैं तो धीरे धीरे सभी छंदों पर प्रयास ज़रूर करूँगा ,लेकिन फिलहाल मुझे कुछ सवैये और लिखना है ,और जब तक लिखना है कि जब तक आप इसे पूरी तरह पास न कर दें ।एक बार फिर आपके मार्गदर्शन और प्रयास की सराहना के लिये दिल की गहराइयों से धन्यवाद देता हूँ ।
Comment by Sushil Sarna on November 3, 2016 at 3:31pm

आदरणीय समर कबीर साहिब सवैया छंद में आपकी दोनों ही प्रस्तुतियां भाव , शिल्प एवम प्रवाह निर्वाह की दृष्टि से उत्तम बन पड़ी हैं। आपने अपनी कलम से मुझे भी व्यक्तिगत से इस सृजन हेतु उत्साहित किया है। बहरहाल आपको हार्दिक हार्दिक बधाई।

Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on November 3, 2016 at 10:32am
आदरणीय समर कबीर साहब दोनों ही सवैये शिल्प की दृष्टि से भी तथा भाव पक्ष से बहुत ही अच्छे लिखे हैं। मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें।

आदरणीय सौरभ जी की समीक्षा के अनुसार आप "कभी भी" को आराम से जहाँ में कर सकते है। सादर एक सुझाव।
Comment by रामबली गुप्ता on November 3, 2016 at 7:44am
ज्यादा क्या कहूँ आद0 समर भाई साहब आपने वागीश्वरी को जिस बेहतरीन तरीके से साधा है मन गदगद हो गया है। भाव और शिल्प दोनों को आपने अच्छे से निभाया है। रही बात शाब्दिक प्रयोगों में त्रुटियों की तो मैं आदरणीय सौरभ पांडे जी से सहमत हूँ। वागीश्वरी, महाभुजंगप्रयात और इस प्रकार के कुछेक सवैये को साधना अन्य सवैयों के सापेक्ष कुछ कठिन होता है फिर भी आपने इसे बखूबी साधा है और साहित्य का सच्चा साधक होना साबित किया है। दोनों सुंदर सवैयों के लिए दिल से बधाई देते हुए आज ये हृदय आपको बारम्बार नमन करता है। आजकल बहुत से रचनाकार छान्दसिक प्रयोगों और रचनाओं को लकीर का फकीर, पुरातनपंथी और न जाने क्या क्या कहने लगे हैं किन्तु जैसा की आद0 सौरभ जी ने कहा सच तो यह है की ऐसे रचनाकार न तो श्रम करना चाहते हैं और उनके बस की बात है। यही कारण है की आज तमाम कवि बेतुकी कविताएँ करने लगे हैं और कवियों की बाढ़ सी आ गयी है। सच तो ये है की श्रमपूर्ण चुनौतियों को स्वीकार करना ही सच्ची साधना है भला कठिन परिश्रम का कोई विकल्प भी है?

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 2, 2016 at 11:42pm

आदरणीय समर साहब, आपने सवैया के मर्म को न केवल समझा है बल्कि उसके विन्यास पर साधिकार कलम चलायी है. (हिन्दी में कलम स्त्रीलिंग ही होता है), वागीश्वरी सवैया यगणात्मक सवैया है. अर्थात, यह भुजंगप्रयात के विन्यास का अनुपालन करता है. आपने इस विधान का बहुत ही क़ायदे से निर्वहन किया है. यह तो हुई विधान की बात. 

कथ्य की दृष्टि से भी आपके सवैये सथापित मूल्यों की बात करते दीखते हैं. यह अवश्य है, कि ’यही है ज़माना बताऊँ तुझे क्या, ज़रा भी सलीक़ा नहीं है कहीं ’ में तुझे की ज़गह तुम्हें लिखना उचित होता. जब दोनों का मात्रा-भार लघु-गुरु है तो कोई फ़र्क़ भी नहीं पड़ता. आगे के वाक्यो (पदों) में तुम्हें के अनुसार क्रिया भी सही प्रतीत होती -  बड़ों ने बताया जिसे ढूंढते हो, भरोसा यहीं है मिलेगा यहीं

यह अवश्य है कि ’कभी भी’ कहना गद्य में चलता है. लेकिन पद्य में धीरे-धीरे लोग मना कर रहे हैं. क्यों कि कभी = कब+ही  होता है. एक ही साथ ही और भी का प्रयोग उचित नहीं है. ग़ज़लों में इसे कत्तई अनुमोदित नहीं करते. तो इससे यहाँ भी बचना था.

लेकिन आपने जिस उत्साह और लगन से रचनाकर्म किया है वह अभिभूत कर रहा है. आपने छन्दों पर कलम चला कर अन्य रचनाकर्मियों केलिए उदाहरण प्रस्तुत किया है आदरणीय, कि छन्द कोई हौआ नहीं है. कि इन पर आज काम नहीं किया जा सकता. समस्या कुछ अगर है तो रचनाकारों के मेहनत से बचने की है. मै इन दोनों छन्दों पर आपको बार-बार बधाइयाँ दे रहा हूँ. तथा, आगे अन्य छन्दों पर भी इसी तरह अभ्यास् करने के प्रति आह्वान कर रहा हूँ 

सादर

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