“शर्म नहीं आती ?”
“शर्म क्यों आयेगी… ?” वह बोला- “अपने पैसे से पीता हूं । भीख नहीं मांगता । मुझे क्यों शर्म आयेगी ?“
मैने भिखारी से कहा- “हट्टे कट्टे होकर भीख मांगते हो शर्म नहीं आती ?”
“शर्म क्यों आयेगी भीख मांगता हूं , कोयी चोरी तो नही करता । शर्म तो चोर को आनी चाहिये ।“
मै चोर के पास गया ।
“शर्म नहीं आती ?” मैने कहा ।
“क्यों भाई ? मुझे शर्म क्यों आयेगी ? कोई मुफ़्त मे करता हूं… निछावर देना पड़ता है । कहां से दूंगा ? धंधा है भाई , कमाऊंगा नही तो दूंगा कहां से । शर्म तो उनको आनी चाहिये…”
“शर्म नही आती ?”
“शर्म हमे क्यों आयेगी । हम तो बैठे इसी के लिये हैं ।“ वे बोले ।
“नहीं आप तो जनता की रक्षा के लिये बैठे हैं ।“ मैने कहा ।
“झूठ है सब । असल तो हम सत्ता की रक्षा मे बैठे हैं ।“
“तो वही कीजिये न ?”
“वही तो कर रहे हैं भय्ये । सत्ता कहां से आती है ? पैसे से । हमारा तो कोटा बंधा होता है भय्ये । शर्म तो उनको आनी चाहिये जो हमारे ऊपर बैठे हैं ।“
यही बात ऊपर वाले अफ़सरों से पूछा । वे बोले- “क्यों शर्म आयेगी ? क्या मुफ़्त मे यहां बैठ गये हैं ? लाखों देकर पोस्ट मिली है , कमायेंगे क्यों नहीं ? फ़िर कौनसा हम अकेले कमाते हैं ? यह तो ऊपर तक जाता है । आप तो मन्त्री जी से ही पूछिये ।“
“शर्म नहीं आती ?” मैने मन्त्री जी से पूछा ।
“क्यों शर्म आयेगी ?” वे बोले “क्या यह सब मुफ़्त मे मिलता है । ससुरा… ! पईसा न खर्च किया है , तब तो इहां तक पहुंचा हूं । भूल गये वो मुफ़्त का दारू … मुर्गा… कम्बल्… पईसा… सब भूल गये क्या… ?”
क्या जवाब दूं । मै तो इस देश की जनता हूं । मैं शर्मिन्दा हुआ तो देश शर्मिंदा होगा ।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
बेशर्मों की विवशता और पोल के साथ उनके नेटवर्क बताती बेहतरीन तंजदार, विचारोत्तेजक रचना के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब मिर्ज़ा ह़ाफ़िज़ बेग साहिब! लघुकथा संदर्भ में मुझे लगा कि कुछ पुनरावृत्तियों/शब्दों को कम किया जा सकता है। //यही बात ऊपर वाले अफ़सरों से पूछा (पूछी)//. कुछ टंकण त्रुुटियां
भी नज़र आयी हैं।
बहुत खूब ! प्रासंगिक प्रस्तुति है, प्रभावी बन पड़ी है.
हार्दिक शुभकामनाएँ आदरणीय
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