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रेत को आब-ए-रवाँ और धूप को झरना लिखा - ग़ज़ल

2122 2122 2122 212

रेत को आब-ए-रवाँ और धूप को झरना लिखा

बेखुदी में तूने मेरे दोस्त ये क्या-क्या लिखा

 

वो तो सीधे रास्ते पर था मगर यह देखिये

नासमझ लोगो ने उसका हर क़दम उल्टा लिखा

 

एक मुद्दत से अदब में है सियासत का चलन

मैं अलग था नाम के आगे मेरे झूठा लिखा

 

जब तेरे दिल में कभी उभरा जो मंज़र शाम का

तूने काग़ज़ पर महज मय सागर-ओ-मीना लिखा

 

अब मुहब्बत पर अक़ीदत ही नहीं है लोगों को

इसलिए पाक़ीज़गी को ही तेरी धोखा लिखा

 

मेरे चेहरे पर न जाने क्या दिखा था उसको जो

उसने दिल को मेरे इक टूटा हुआ शीशा लिखा

 

बेख़बर हूँ रोज़-ओ-शब की ग़र्दिशों से क्या कहूँ

कब तलक मेरे मुकद्दर में है अँधियारा लिखा

-मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by vijay nikore on December 2, 2016 at 3:36pm

खूबसूरत गज़ल के लिए बधाई

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 2, 2016 at 11:45am

आ0 शिज्जु भाई, गज़ल बहुत सुन्दर कही है, हार्दिक बधाइयाँ ll


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 2, 2016 at 10:27am

आदरणीय शिज्जु भाई , गज़ल बहुत सुन्दर कही है , सभी अशआर अच्छे लगे , हार्दिक बधाइयाँ आपको ।

Comment by Nidhi Agrawal on November 30, 2016 at 11:31am

बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल बनी आदरणीय शकूर जी 

एक मुद्दत से अदब में है सियासत का चलन

मैं अलग था नाम के आगे मेरे झूठा लिखा ---------- वाआह्ह्ह 

Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on November 29, 2016 at 1:36pm
मुहतरम जनाब शिज्जु शकूर साहिब बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है। शेर दर शेर दाद कबूल फरमाएँ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on November 29, 2016 at 10:46am

मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब आपका बहुत बहुत शुक्रिया


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on November 29, 2016 at 10:46am

बहुत बहुत शुक्रिया आ. मिथिलेश जी, तरमीम कर लिया है ज़रा देख लीजियेगा


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on November 28, 2016 at 9:15pm
///जनाब शिज्जु शकूर साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
जनाब मिथिलेश जी से सहमत हूँ /// जी मैं भी :-)
Comment by Samar kabeer on November 28, 2016 at 8:22pm
जनाब शिज्जु शकूर साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
जनाब मिथिलेश जी से सहमत हूँ ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 28, 2016 at 7:33pm
आदरणीय शिज्जू भाई जी
बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने। दाद कुबूल फरमाएं।
यह मिसरा बेबह्र हो रहा है

वो तो सीधी राह पर था टूटकर तूफाँ की तरह।

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