बदले-बदले लोग
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बहुत दिन हो गए,
हमने नहीं की फिल्म की बातें।
न गपशप की मसालेदार,
कुछ हीरो-हिरोइन की।
न चर्चा,
किस सिनेमा में लगी है कौन सी पिक्चर?
पड़ोसी ने नया क्या-क्या खरीदा?
ये खबर भी चुप।
सुनाई अब न देती साड़ियों के शेड की चर्चा।
कहाँ है सेल, कितनी छूट?
ये बातें नहीं होती।
क्रिकेटी भूत वाले यार ना स्कोर पूछे हैं।
न कोई जश्न जीते का,
न कोई शोक हारे तो।
इधर बच्चें भी छोटा भीम जैसे भूल बैठे हैं।
कि अब तो मॉल का भी गेम वाला जोन तनहा है।
सुबह की सैर में
तबियत कहाँ है ख़ास बातों में?
हँसी या छेड़खानी भी नदारद है मरासिम से।
यहाँ बच्चे, जवां, बूढ़े, सहेली, यार ही सारे;
सभी मशगूल हैं,
चिंताएं ख़ुद सिर पर उठाने में।
यहाँ अब मीडिया के साथ सोशल मीडिया घायल।
कोई है पक्ष में,
कोई खड़ा प्रतिपक्ष में लेकिन
सभी की बात का मुद्दा वही रहता है अक्सर ही।
किसी इक शख्स में मसरूफ है अहले-वतन यारब।
नहीं जो आदमी पूरा,
बनाया है ख़ुदा उसको।
मेरे घर में करें बच्चे,
सियासत की अजब बातें।
कहाँ खोई है,
बीवी की हँसी की,
प्यार की बातें।
कि
दफ्तर हो या यारों की हो महफ़िल,
बस यही आलम।
लगे है-
ज़िन्दगी को लोग जीना भूल बैठे हैं।
कि अब अलमस्त रहने के बहाने भूल बैठे हैं।
सभी की है नज़र,
आखिर कहाँ खोए हैं अच्छे दिन?
कहाँ जम्हूरियत के नाम पर चाहे थे ऐसे दिन?
यहाँ बदला वतन कितना?
नहीं मालूम है लेकिन।
यकीनन ही,
वतन में बदले-बदले लोग रहते हैं।
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर
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Comment
आ० मिथिलेश जी लेखनी का दम इसे कहते है आपने देश का आइना उतार कर रख दिया . बहुत बहुत बधाई .
लगे है-
ज़िन्दगी को लोग जीना भूल बैठे हैं।
कि अब अलमस्त रहने के बहाने भूल बैठे हैं।
सभी की है नज़र,
आखिर कहाँ खोए हैं अच्छे दिन?
कहाँ जम्हूरियत के नाम पर चाहे थे ऐसे दिन?.....खुश रह पाने की आदात का छूटना किसी भी सामयिक घटना से ज़्यादा हर दिन पैर फैलाते आधुनिकरण को भी जाता है .. आपकी जानी पहचानी शैली में सशक्त रचना हार्दिक बधाई आदरणीय मिथिलेश जी
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