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एक दिन माली रूठ गया
फूल यह जान दुःखी हुआ
सूरज की तपिश भी तेज थी
बिन पानी के फूल सूख गया
ज़मीन पर गिर मिट्टी पर पड़ा
जोत रहा था बाट माली की
सोच रहा था क्या हो गया
मेरा माली क्यों रूठ गया ।
इतने में कोई पास आया
देख उसको मुरझाया फूल हरकाया
बोला माली से बाबा क्या ऐसी बात हुई
आपकी राह देखते देखते देखो
कई कलियाँ भी मुर्झा गयीं ।
माली ने प्यार से उसे उठाया
गिरे हुए फूल को फिर सहलाया
फूल और माली की प्रीत निराली
सूरज बोला मैं जाऊँ बलिहारी ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by मिथिलेश वामनकर on December 26, 2016 at 3:06am

आदरणीया कल्पना जी, इस प्रस्तुति पर आपको हार्दिक बधाई।

Comment by TEJ VEER SINGH on December 25, 2016 at 6:08pm

हार्दिक बधाई आदरणीय कल्पना जी। बहुत शानदार कविता।अंतिम पंक्ति को इस तरह करके देखिये -"सूरज बोला, मैं जाऊं बलिहारी"।

Comment by Samar kabeer on December 25, 2016 at 4:56pm
एक बात और"सूरज बोला में जाऊं वारी वारी" "वारी जाऊं"शब्द शायद स्त्रियों के लिये मख़सूस है ?
Comment by Samar kabeer on December 25, 2016 at 3:03pm
मोहतरमा कल्पना भट्ट साहिबा आदाब,बहुत सुंदर कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Mahendra Kumar on December 25, 2016 at 11:16am
आदरणीया कल्पना जी, इस बढ़िया प्रस्तुति पर आपको हार्दिक बधाई। //बीन पानी के फूल सुख गया// में "बिन पानी के फूल सूख गया" कर लीजिएगा। टंकण त्रुटि है। सादर।

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