गाँव में था
एक भवानी का चौतरा
कच्ची माटी का बना
जिसके पार्श्व में लहराता था ताल
जिसके किनारे था एक देवी विग्रह
छोटा सा
चबूतरे को फोड़कर बीच से
निकला था कभी एक वट वृक्ष
जो विशाल था अब इतना
कि आच्छादित करता था
पूरे चबूतरे को
साथ ही देवी विग्रह को भी
अपने प्रशस्त पत्तों की
घनीभूत छाया से
और लटकते थे
इसकी शाखाओं से अरुणिम फल
फूटते थे
शत-शत प्राप-जड़ या वरोह
जिसके कारण ही वट वृक्ष
कहा जाता है -वरोरुह
और वह वरोह
होता है जमींदोज
बनाता है काष्ठ स्तम्भ
जिसके बीच तब झूलते थे
गाँव के लड़के पकड कर
लटके हुए वरोह को
माँ भवानी के चौतरे में झूला
ताल में उड़ते थे
जलपक्षी
सारस, घोमरा, शाह चकवा,
लालसर बत्तख और बगुले
सुबह शाम होती थी
देवी विग्रह की पूजा
आती थी गाँव की औरते
जलाती थीं दिए, अगरबती और धूप
गाती थी कुछ मीठे गीत
और होते थे कभी
चूड़ाकरण , कर्ण-वेध और उपनयन
सजते थे विग्रह
बजते थे ढोल
मचता था उत्सव
सालों-साल गाँव की पहचान रहा
माँ का चबूतरा
फिर एक दिन बैठ गया बगुला
वट की फुनगी पर
की उसने बीट
माँ ने कहा- ‘गया यह वृक्ष’
बढ़ती गयी बगुलों की संख्या
भीजता रहा वट वृक्ष
अनवरत बीट से
सूखते-झड़ते गए पत्ते
कंकाल हो गया वरोरुह
वीरान हुआ माँ का चबूतरा
रह गये केवल
ध्वंस के शेष, ध्वंसावशेष
बीती हुयी बात है
आँखों से देखी हुयी
इसीलिये जो कुछ हुआ है आज
उससे हठात्
खड़े हो गए है मेरे कान
भले ही हो वह मेरा वहम
पर
एक बगुले की बीट ने
अभी-अभी किया है अपवित्र
मेरे पिता की देह को
और मैं अकारण ही हो गया हूँ
किंकर्तव्यविमूढ़
कुछ सोचने के लिए बाध्य .
अजगुत, अकल्पनीय
या फिर संभाव्य
(मौलिक /अप्रकाशित )
Comment
आदरणीय गोपाल सर, बढ़िया प्रस्तुति. हार्दिक बधाई. सादर
आ० समीर कबीर साहिब , इस बार मुशायरे में आपको बहुत मिस किया . इस कविता पर आपकी सदाशयता का आभार .
आ० महेंद्र जी , आभार .
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