221 2121 1221 212
तंग आ गया हूँ हालते क़ल्ब-ओ-ज़िगर से मैं
उकता गया हूँ ज़िंदगी, तेरे सफर से मैं
होश ओ हवास ओ-बेख़ुदी की जंग में फ़ँसे
दिल सोचने लगा है कि जाऊँ किधर से मैं
मंज़िल मेरी उमीद में जीती है आज भी
पर इलतिजाएँ कर न सका रहगुज़र से मैं
ऐसा नहीं गमों से है नाराज़गी कोई
उनकी ख़बर तो लेता हूँ शाम-ओ-सहर से मैं
अब नफरतों, की शक़्ल भी आतिश फिशाँ हुईं
डर है झुलस न जाऊँ कहीं इस शरर से मैं
जब जब हवायें तुँद हुई डर के छिप गया
उक्ता गया हूँ अब तो मियाँ हमसफ़र से मैं
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय बृजेश भाई , हौसला अफज़ाई का शुक्रिया ।
गज़ल में हमेशा की तरह बहुत ही खूबसूरत ख्याल पिरोय हैं। बधाई, आदरणीय भाई गिरिराज जी।
आदरणीय गिरिराज जी, बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने। शेर-दर-शेर दाद कुबूल फरमाएं
आदरणीय गिरिराज सर, बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने. शेर-दर-शेर दाद के साथ मुबारकबाद कुबूल फरमाएं. इस मिसरे पर पुनर्विचार निवेदित है-
मंज़िल ! मेरी उमीद यूँ जीती है अब भी पर-----> मंज़िल ! मेरी उमीद यूँ जीती है लेकिन अब
एक मिसरा बेबहर हो गया है-
उनकी खबर लेता रहा शाम-ओ-सहर से मैं
221 /2221/1221/212
ऐसा नहीं गमों से है नाराज़गी कोई
उनकी ही तो खबर में लगा हूँ सहर से मैं
सादर
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