( अज़ीम शायर मुहतरम जनाब कैफ़ी आज़मी साहब की ज़मीन पर एक प्रयास )
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मुझको कहाँ अज़ीज़ है कुछ भी चमन के बाद
क्या मांगता ख़ुदा से मैं हुब्ब-ए-वतन के बाद
तहज़ीब को जो देते हैं गंग-ओ-जमुन का नाम
ये उनसे जाके पूछिये , गंग-ओ-जमन के बाद ?
वो लम्स-ए-गुल हो, या हो कोई और शय मगर
दिल को भला लगे भी क्या तेरी छुवन के बाद
वो चिल्मनों की ओट से देखा किये असर
बातों के तीर छोड़ के हर इक चुभन के बाद
रहती है बेक़रार पर आती नहीं है धूप
मेरा ग़रीब खाना है ऊँचे भवन के बाद
ना आशना तू क्या हुआ ,सारा जहाँ मुझे
लगने लगा है आशना उस अंजुमन के बाद
ऐ मेरी नज़्म बोल क्या तू भी उदास है ?
ग़मगीन जैसे मैं हुआ , तर्क़े सुखन के बाद
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
क्या कमाल की ग़ज़ल हुई है, आदरणीय गिरिराज भाई ! वाह वाह ! .. और इस शेर के लिए तो विशेष तौर पर दाद -
ऐ मेरी नज़्म बोल क्या तू भी उदास है ?
ग़मगीन जैसे मैं हुआ , तर्क़े सुखन के बाद............
इस एक शेर ने अदब की दुनिया को नंगा सबके सामने ला खड़ा किया है. आपकी कलमग़ोई आजकल कमाल कर रही है, आदरणीय
जय-जय
मुहतरम जनाब गिरिराज साहिब ,अच्छी ग़ज़ल हुई है ,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ -
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