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//अरे माई ! कौन धर्म और कैसा ठेकेदार ? ये झंडा लगा के हलक फाड़ने के पांच - पांच सौ रूपये मिलेंगे हम सभी को और अभी पिछले महीने हीं तो फतवा अलि की नुमाइंदगी करने गये थे हम हरियाली बन्ना बनकर । सुनो चाची , हम गरीब गुरबों का एक हीं साझा कौम है... भूख , और खुदा भी एक है... रोटी !"// वाह ...वाह ..और बस वाह के अतिरिक्त इस लघु कथा के बारे में कुछ भी कहने को शब्द नहीं हैं ...बधाई आदरणीया अपराजिता जी
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आदरणीय अपराजिता जी, बहुत ही सधी हुई लघुकथा कही है आपने । शुरूआत से अंत तक पाठक को पूरी तरह बांधे रखने में सक्षम इस लघुकथा के लिए आपको दिल से बधाईयां अर्पित हैं।
लघुकथा की शुरूआत /छोटा सा कस्बाई शहर जो बड़ी सिटी बनने की होड़ में अपनी तरुणाई छोड़ व्यस्क होने लगा था । जिसकी छाती पर स्वहस्ताक्षरित ठप्पा ये झुग्गी बस्ती थी जो अमूमन अब हर बड़े शहर की पहचान बन चुकी है ।/ बहुत ही सधे तरीके से हुई है। 'तरूणाई छोड़ व्यस्क होने....../ प्रतीको के प्रयोग का अद्भुत उदाहरण, वाह ! /सुबह भूख को जीतने की अथक कोशिश , शाम को एक उम्मीद के साथ ढल जाया करती थीं/ एक पंक्ित में वो सब कुछ इस कुशलता से बयां किया गया जिसके लिए उपन्यास तक लिखे गए । कथा की शुरूआत में ही एक मंझे व कुशल लघुकथा की झलक दिखाई दे रही है। गेरूआ रंग, हरियाली बन्ना जैसे प्रतीकों का प्रयोग भी लेखकीय कौशल की झलक सहजता से प्रस्तुत कर रहा है। और लघुकथा का अंत /सुनो चाची , हम गरीब गुरबों का एक हीं साझा कौम है... भूख , और खुदा भी एक है... रोटी !"/ किसी भी संवेदनशील पाठक की चेतंनता को अवश्य झंझकोरता है। ओवरऑल यह एक सधी व प्रभावशाली लघुकथा है । इस मंच पर यह आपकी बेशक दूसरी कथा है और परन्तु आपमें असीम संभावनाएं नज़र आती हैं। मैं अपनी ओर से आपको भविष्य के लिए हार्दिक शुभकामनाएं अर्पित करता हूं । सादर
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