२१२२, ११२२, ११२२, २२
ये नहीं है कि हमें उन से मुहब्बत न रही,
बस!! मुहब्बत में मुहब्बत भरी लज्ज़त न रही.
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रब्त टूटा था ज़माने से मेरा पहले-पहल,
रफ़्ता-रफ़्ता ये हुआ ख़ुद से भी निस्बत न रही.
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ज़ह’न में कोई ख़याल और न दिल में हलचल,
ज़िन्दगी!! मुझ में तेरी कोई अलामत न रही.
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उन से नज़रें जो मिलीं मुझ पे क़यामत टूटी,
वो क़यामत!! कि क़यामत भी क़यामत न रही.
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याद गर कीजै मुझे, यूँ न मुसलसल कीजै,
हिचकियां सहने की अब जिस्म को आदत न रही.
बस... बिला-वज़’ह उसे डांट दिया था मैंने,
“नूर” उस रोज़ इबादत भी इबादत न रही.
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मौलिक / अप्रकाशित
निलेश "नूर"
Comment
धन्यवाद
हार्दिक शुभकामनाएं आदरणीय
आदरणीय नीलेश सर जी। .. बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल
आ. नूर भाई , बेहतरीन गज़ल कही , दिली मुबारक बाद आपको ।
शुक्रिया ...सभी को...शुक्रिया आ. समर सर.. जल्दी का काम शैतान का इसीलिए कहते हैं :)
शुक्रिया ...सभी को...शुक्रिया आ. समर सर.. जल्दी का काम शैतान का इसीलिए कहते हैं :)
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