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सुखनवर से वो पहले आदमी है
गलत क्या है अगर नीयत बुरी है
किताबों से कमाई कम हुई तो
सुना है, रूह उसने बेच दी है
अचानक आइने के बर हुये हैं
इसी कारण बदन में झुरझुरी है
लगावट खून से, होती है अंधी
वो काला भी, हरा ही देखती है
चली तो है पहाड़ों से नदी पर
सियासी बांध रस्ता रोकती है
दिवारें लाख मज़हब की उठा लें
अगर बैठी, तो कोयल , कूकती है
किसी से प्यार हो, या मुझसे नफरत
हक़ीकत है, कि कुतिया भूँकती है
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
चली तो है पहाड़ों से नदी पर
सियासी बांध रस्ता रोकती है
आदरणीय गिरिराज जी बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है .... हर शेर पे वाह निकलती है ... दिल से मुबारक बाद कबूल फरमाएं सर।
आदरणीय मित्रों ,
दिवारें लाख मज़हब की उठा लें
अगर बैठेगी कोयल , कूकती है .... इस शे र को कृपया निम्न अनुसार पढें --
दिवारें लाख मज़हब की उठा लें
अगर बैठी, तो कोयल , कूकती है --- सादर निवेदन।
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