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सुनें वो गर नहीं,तो बार बार कह दूँ क्या
है बोलने का मुझे इख़्तियार, कह दूँ क्या
शज़र उदास है , पत्ते हैं ज़र्द रू , सूखे
निजाम ए बाग़ है पूछे , बहार कह दूँ क्या
कहाँ तलाश करूँ रूह के मरासिम मैं
लिपट रहे हैं महज़ जिस्म, प्यार कह दूँ क्या
यूँ तो मैं जीत गया मामला अदालत में
शिकश्ता घर मुझे पूछे है, हार कह दूँ क्या
यूँ मुश्तहर तो हुआ पैरहन ज़माने में
हुआ है ज़िस्म का भी इश्तिहार, कह दूँ क्या
हाँ, लहज़ा तल्ख़ था लेकिन कही हक़ीकत थी
ज़रा सा पूछ तो लेते, कि ख़ार कह दूँ क्या
वो, एक लम्हा भी जिसने मुझे हँसाया है
ये दिल कहे, उसे परवर दिगार कह दूँ क्या
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
बहुत सुंदर ग़ज़ल आद० गिरिराज जी हर शेर पर दाद कुबूलें .
आ. गिरिराज जी,
ग़ज़ल के लिये बधाई ..
लिपट रहे हैं सिर्फ़ जिस्म, प्यार कह दूँ क्या.... ये मिसरा बेबहर है... सिर्फ को फ़क़त कर लें ..
सादर
बेहतरीन आ. गिरिराज जी बहुत बहुत बधाई आपको, जहाँ तक सुधार की बात है यदि बेहतर मिल जाए सुधार देना अच्छा है।
आदरणीय गिरिराज भाई जी हमारे कहे को मान देने के लिये हार्दिक आभार
आदरनीय रवि भाई , ग़ज़ल पर उपस्थिति और सराहना के लिये आपका हृदय से आभार ।आपका कहना सही है , ऐब ए तनाफुर है मिसरे में -- कहाँ तलाश करूँ रूह के मरासिम मैं -- इस मिसरे को ऐसा कर रहा हूँ ...
कहाँ तलाश करूँ रूह के मरासिम अब ...
बढि़या ग़ज़ल हुई है आदरणीय गिरिराज भाई जी बहुत बहुत बधाई तीसरे शेर के आखिरी रुक्न में ( मरासिम मैं ) में उच्चारण में शब्द कुछ विकृत होता लग रहा है ( तनाफुर ) मात्रा तो अलग है पर उच्चारण को देखते हुए क्या इसे सुधारा जाना चाहिये । मार्ग दर्शन दीजियेगा । सादर ।
आदरनीय बृजेश भाई , आभार आपका ।
आदरनीय के पी अनमोल भाई , हौसला अफज़ाई का शुक्रिया ।
आदरनीया छाया जी ,उत्साह वर्धन के लिये आभार आपका ।
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