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जो अपने ख्वाब के लिए जाँ से गुज़र गए
खुद ख़्वाब बनके सबके दिलों में उतर गए
थोड़ा असर था वक्त का थोड़ी मेरी शिकस्त
जो ज़ीस्त से जु़ड़े थे वो अहसास मर गए
रिश्तों पे चढ़ गया है मुलम्मा फ़रेब का
अब जाने रंग कुदरती सारे किधर गए
ये सोच ही रहा था कि मैं क्या नया लिखूँ
फिर से वही चराग़ वरक़ पर उभर गए
बिखरे हुए थे दर्द तुम्हारी किताब में
दिल से गुज़र के वो मेरी आँखों में भर गए
-मौलिक व अप्रकाशित
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जो अपने ख्वाब के लिए जाँ से गुज़र गए
खुद ख़्वाब बनके सबके दिलों में उतर गए
थोड़ा असर था वक्त का थोड़ी मेरी शिकस्त
जो ज़ीस्त से जु़ड़े थे वो अहसास मर गए
आदरणीय शिज्जु शकूर साहिब दिल के जज़्बातों को बड़ी ही मासूमियत से आपने लफ़्ज़ों में ढाला है ....
हर दर्द पे आह निकलती है ,
हर शेर पे वाह निकलती है
ऐ सांस कुछ देर तो ठहर तू
वो सामने से चाह निकलती है
... इस बेहद उम्दा ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई सर।
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