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पग सियासी आँच पर मधु भी जहर होने को है।
बच गया ईमान जो कुछ दर-ब-दर होने को है।।
मुफलिसों को छोड़कर गायों गधों पर आ गई।
यह सियासत आप पर हम पर कहर होने को है।।
उड़ रहा है जो हकीकत की धरा को छोड़ कर।
बेखबर वो जल्द ही अब बाखबर होने को है।।
वो जो बल खा के चलें इतरा के घूमें कू-ब-कू।
खत्म उनके हुस्न की भी दोपहर होने को है।।
जुल्म से घबरा के थक के हार के बैठो न तुम।
"हो भयावह रात कितनी भी सहर होने को है॥"
आशीष यादव
मौलिक एवम् अप्रकाशित
Comment
आदरणीय Raghav Priydarshi जी शे'र पसंद आया मैं धन्य हुआ। बहुत बहुत आभार |
आदरणीय amod srivastav (bindouri) जी बहुत बहुत आभार ।
बहुत ही शानदार जानदार और व्यंग्यदार रचना हुई है आदरणीय आशीष यादव जी!
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