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दर्द के निशाँ ....

दर्द के निशाँ ....

दर
खुला रहा
तमाम शब
किसी के
इंतज़ार में

पलकें
खुली रहीं
तमाम शब्
किसी के
इंतज़ार में

कान
बैचैन रहे
तमाम शब्
तारीकियों में ग़ुम
किसी की
आहटों के
इंतज़ार में

शब्
करती रही
इंतज़ार
तमाम शब्
वस्ले-सहर का

मगर
वाह रे ऊपर वाले
वस्ल से पहले ही
तू
ज़ीस्त को
इंतज़ार का हासिल
बता देता है
मंज़िल से पहले ही
रास्ते बदल देता है
वस्ल को ख़्वाब
और
मुहब्बत के पाँव में
दर्द के निशाँ
बना देता है

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Views: 436

Comment

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Comment by Sushil Sarna on March 7, 2017 at 4:13pm

आदरणीय  गिरिराज भंडारी जी सृजन को अपने स्नेह से अलंकृत करने का हार्दिक आभार।

Comment by Sushil Sarna on March 7, 2017 at 4:12pm

आदरणीय  Mahendra Kumar जी सृजन को अपने स्नेह से अलंकृत करने का हार्दिक आभार।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 7, 2017 at 1:19pm

आदरणीय सुशील भाई , बहुत अच्छी कविता रची है आपने , हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by Mahendra Kumar on March 6, 2017 at 7:11pm
बढ़िया कविता है आदरणीय सुशील सरना जी। हार्दिक बधाई। सादर।
Comment by Sushil Sarna on March 4, 2017 at 2:05pm

आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी सृजन को अपने स्नेह से अलंकृत करने का हार्दिक आभार।

Comment by नाथ सोनांचली on March 4, 2017 at 6:06am
आद0 सुशील सरना जी सादर अभिवादन। बहुत ही भावपूर्ण और उम्दा रचना, बधाई आपको

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